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पउमचरियं
[२.६८नाणेण दंसणेण य, चारित्त-तवेण सम्मसहिएणं । मण-वयण-कायगुत्तो, अजिणइ अणन्तयं पुण्णं ॥ ६८ ॥ अविहभेयभिन्नं, कम संखेवओ समक्खायं । बज्झन्ति य मुच्चन्ति य. जीवा परिणामजोगेणं ॥ ६९ ॥ संसारषवन्नाणं, जीवाणं विसयसङ्गमूढाणं । जे होइ तक्खणसुह, तं पुण दुक्खं अणेगविहं ।। ७० ॥ नाव य निमिसपमाणो, कालो वच्चेज नरयलोगम्मि । तावं चिय नत्थि सुह, जीवाणं पावकम्माणं ।। ७१ ॥ दमणेसु ताडणेसु य, बन्धणनिन्भच्छणाइदोसेसु । दुक्खं तिरिक्खजीवा, अणुहवमाणा य अच्छन्ति ॥ ७२ ।। संजोग-विप्पओगे, लाहा-ऽलाहे य राग-दोसेमु । मणुयाण हवह दुक्खं, सारीरं माणसं चेव ॥ ७३ ॥ अप्पिढियदेवाण वि, दह्ण महिडिए सुरसमूहे । जं उप्पज्जइ दुक्खं, तत्तो गुरुयं चवणकाले ॥ ७४ ॥ एयारिसम्मि घोरे, संसारे चाउरङ्गमग्गमि । दुक्खेहि नवरि जीवो, भट्ठो मणुयत्तणं लहइ || ७५ ॥ लद्धे वि माणुसत्ते, सबराइकुलेसु मन्दविभवेसु । उत्तमकुलम्मि दुक्खं, उप्पत्ती होइ जीवस्स ॥ ७६ ॥ उप्पन्नो विहु सुकुले, वामण-बहिर-ऽध-मूय-कुणि-खुज्जो । दुक्खेहि लहइ जीवो, निरोगपश्चिन्दियं रूवं ॥ ७७ ॥ सबाण सुन्दराणं, लद्धे वि समागमे अपुण्णस्स । न हविज धम्मबुद्धी, मूढस्स उ लोभ-मोहेणं ॥ ७८ ॥ उप्पन्ना वि य बुद्धी, धम्मस्सुवरिं कुधम्म-हम्मेसु । तह वि य पुण भामिज्जइ, न लहइ जिणदेसियं धम्मं ॥ ७९ ॥ लद्धण माणुसत्तं, जस्स न धम्मे सया हवइ चित्तं । तस्स किर करयलत्थं, अमयं नटुं चिय नरस्स ।। ८० ॥
केइत्थ धीरपुरिसा, चारित्तं गिण्हिऊण भावेण । अक्खण्डियचारित्ता, जाव ठिया उत्तमट्टम्मि ॥ ८१ ॥ साथ ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तपसे तथा मन-वचन-कायको अशुभ प्रवृत्तिसे दूर रखनेवाला जीव अनन्त पुण्य उपार्जित करता है । (६) कर्मके संक्षेपमें आठ भेद कहे गए हैं। अपने-अपने परिणामके अनुसार जीव कर्मका बन्ध करते हैं या मुक्त होते हैं। (६६) विषय-सुखमें मूढ़ संसारी जीवको जो क्षणिक सुख प्रतीत होता है वह तो वस्तुतः अनेकविध दुःखरूप ही है। (७०) पापकर्म करनेवाले जीवको नरक लोकमें एक निमिष जितने भी समयमें सुख नहीं मिलता। (७१) तिर्यंच जीव, मार-पीट, बन्धन एवं तिरस्कार श्रादि दोषों द्वारा दुःखका अनुभव करते हैं। (७२) संयोग और वियोगमें, लाभमें और अलाभमें, रागमें और द्वेषमें मनुष्यको शारीरिक एवं मानसिक दुःख होता है । (७३) अल्प ऋद्धिवाले देवोंको महर्द्धिक सुरसमूहको देखकर जो दुःख होता है उससे भी भारी दुःख तो उन्हें च्यवनकालमें ( देवगतिसे च्युत होकर दूसरी गतिमें जन्म लेते समय अर्थात् मरणकालमें) होता है। ( ७४) ऐसे घोर संसाररूपी चौराहेमें खड़ा हुआ जीव दूसरे जीवोंकी अपेक्षा तुलनामें दुःखसे मुक्त होने पर ही मानवयोनि प्राप्त करता है। (७५) मनुष्यत्व प्राप्त करनेके बावजूद भी मन्द पुण्यके कारण जीव शबर आदि कुलोंमें उत्पन्न होता है; उत्तम कुलोंमें जीवकी उत्पत्ति बड़ी कठिनाईसे होती है। (७६) उत्तम कुलमें उत्पन्न होने पर भी मनुष्य बौना, बहरा, अन्ध, D , ह्ठा और लूला-लँगड़ा होता है। जोव बड़ी मुश्किलसे पाँचों इन्द्रियोंसे नीरोग तथा सुरूप होता है। (७७) सभी सुन्दर वस्तुओंकी प्राप्ति होने पर भी अपुण्यशाली मूर्ख मनुष्यको लोभ एवं मोहवश धर्ममें बुद्धि ही नहीं होती। (७) धर्म विषयक बुद्धि उत्पन्न होने पर भी कुधर्मरूपी क्रीड़ागृहोंमें वह घुमाया जाता है, जिससे जिनभावित धर्मको वह प्राप्त नहीं करता। (७९) मनुष्यत्व प्राप्त करके जिसका चित्त सर्वदा धर्ममें नहीं लगा रहता उस मनुष्यके करतलमें आया हुआ अमृत भी मानो नष्ट हो गया। (८०) यहाँ पर ऐसे भी कितने ही धीर पुरुष हुए थे जिन्होंने भावपूर्वक चारित्र ग्रहण किया था और अपने चारित्रमें अखण्डित रहकर अब उत्तम स्थान (मोक्ष) में जाकर ठहरे हैं। (८१) दूसरे भी ऐसे धीर पुरुष हैं जिन्होंने 'जिन' पदकी ( तीर्थकर नामकर्मकी ) प्राप्तिके लिये कारणभूत बीस स्थानककी आराधना करके तीनों लोकोंके लिये
१. अरिहंत', सिद्ध, प्रवचन३, गुरु', स्थविर , बहुभ्रत और तपस्वी. इन सातमें वत्सलता (अनुराग); अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग'; दर्शन', विनय.. आवश्यक', शील ( उत्तर गुण). व्रत'३ (मूलगुण ) इन पाँचमें निरतिचारता; क्षणलव. (निरन्तर समाधि), तप, त्याग और वैयावृत्त्य" इन चारमें समाधि; अपूर्वज्ञानग्रहण' (निरन्तर ज्ञानाभ्यास), श्रुतभक्ति. तथा प्रवचन प्रभावना'.-ये बीस तीर्थकर नामकर्मकी प्राप्ति के कारण माने जाते हैं और इसीलिये इनकी आराधनाका उपदेश है।
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