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________________ पउमचरियं [५६.७४दोण्हं पि ताण जुझ, वट्टइ विवडन्तसत्थसंघायं । ताव य भुयपासाओ, विणिग्गओ मारुई सिग्धं ॥ ७४ ॥ हणुमन्त-अङ्गया ते, आरूढा वरविमाणसिहरेसु । लक्खण-बिभीसणा वि य, आसासेन्ती सयाणीयं ॥ ७५ ॥ एयन्तरम्मि पत्तो, बिभोसणो इन्दई समरकंखी । दट्ठण तं कुमारो, इमाणि हियएण चिन्तेइ ॥ ७६ ॥ तायस्स य एयस्स य, को भेओ? नइ गविस्सए ताओ । न य मारिऊण पियर, हवइ जसो निम्मलो लोए । ७७ ॥ भामण्डल-सुग्गीवा, भुयङ्गपासेसु दारुणा बद्धा । मरिहिन्ति निच्छएणं, जुत्तं अवसप्पणं अम्हं ॥ ७८ ॥ परिचिन्तिऊण एवं. किणियत्ता ते रणाउ दो वि जणा । लच्छीहरेण दिट्ठा, रावणपुत्ता बलसमग्गा ॥ ७९ ॥ अह भाणिउं पवत्तो सोमित्ती सुणसु नाह ! मह वयणं । भामण्डल-सुग्गीवा, बद्धा भीमेहि नागपासेहिं ॥ ८० ॥ रावणपुत्तेहि इमे, निज्जन्ता पेच्छ निययपुरिहुत्ता । एएहि विणा अम्हे, किं निप्पइ दहमुहो को वि? ॥ ८१ ॥ पुण्णोदएण एत्तो, रामो सरिऊण लक्खणं भणइ । चिन्तेहि वरं सिग्धं, जो उवसम्गो तया लद्धो ॥ ८२ ॥ सरिऊण लक्खणेणं, तत्थ महालोयणो सुरो सहसा । अवहिविसएण नाउँ, रामसयासं समल्लीणो ॥ ८३ ॥ पउमस्स देइ तुट्ठो, नामेणं सीहवाहिणी विजं । गरुडा परियणसहिया, पणामिया लच्छिनिलयस्स ॥ ८४ ॥ दोष्णि य रहे पयच्छइ, दिवामलपहरणपरिपुण्णे । अग्गेय-वारुणाई, अन्नाणि य सुरवरत्थाणि ॥ ८५ ॥ नामेण विज्जवयणं, देइ गयं लक्खणस्स सुरपवरो । दिवं हलं च मुसलं, पउमस्स वि तं पणामेइ ।। ८६ ॥ संपत्ता महिमाणं, परमं दसरहसुया सुकयपुण्णा । देवो वि पीइपमुहो, कमेण निययं गओ ठाणं ॥ ८७ ॥ परभवसुकएणं होन्ति वीरा मणुस्सा, बहुरयणसमिद्धा भोगभागी सुरूवा । अरिभडनियरोहे तत्थ पावन्ति कित्ती, विमलधवलचित्ता जे हु कुबन्ति धर्म ॥ ८८ ॥ ॥ इय पउमचरिए विज्जासन्निहाणं नाम एगूणसट्ठ पव्वं समत्तं ।। दोनों में होता रहा तबतक तो हनुमान नागपाशसे शीघ्र ही मु..हो गया। (७४) वे हनुमान और अंगद उत्तम विमानोंके शिखर पर आरूढ़ हुए। लक्ष्मण और विभीषण भी शपनी सेनाको आश्वासन देने लगे। (४५) उस समय विभीषण युद्धाकांक्षी इन्द्रजितके पास आ पहुँचा। उसे देखकर कुमार मनमें ऐसा सोचने लगा । (७३) यदि देखा जाय तो पिता और इनमें क्या भेद है ? पिताको मारनेसे विमल यश संसारमें नहीं फैलता। (७७) भामण्डल और सुग्रीव भुजंगपाशोंमें भयंकर रूपसे बाँधे गये हैं। वे अवश्य ही मर जायेंगे। अब हमारा यहाँसे चला जाना ही उपयुक्त है। (८) ऐसा सोचकर वे दोनों जन युद्धमेंसे लौटे। लक्ष्मणने सेनासे युक्त रावणके पुत्रों को देखा । (७६) तब लक्ष्मण कहने लगा कि, हे नाथ ! मेरा कहना आप सुनें। भामण्डल और सुग्रीव भयंकर नागपाशसे बाँधे गये हैं। (८०) रावणके पुत्रोंद्वारा अपनी नगरीकी ओर लिये जाते हैं इन्हें आप देखें। इनके बिना हममें से कोई भी रावणको क्या जीत सकता है ? (८१) तव पुण्योदयसे रामने याद करके लक्ष्मणसे कहा कि उपसर्गके समय जो वर प्राप्त किया था उसे तुम शीघ्र स्मरण करो। (८२) लक्ष्मणके याद करनेपर अवधिज्ञानसे जानकर महालोचन देव सहसा रामके पास आया। (८३) तुष्ट हो उसने रामको सिंहवाहिनी विद्या दी और लक्ष्मणको परिजन सहित गरुड़ा विद्या दी। (८४) उसने दोनोंको दिव्य एवं विमल प्रहरणोंसे परिपूर्ण रथ प्रदान किये तथा आग्नेय, वारुण एवं दूसरे भी दिव्यास्त्र दिये। (८५) उस उत्तम देवने लक्ष्मणको विद्यद्वदन नामकी गदा दी तथा दिव्य हल एवं मुसल रामको दिये । (८६) सुकृतसे पूर्ण दशरथपुत्र राम और लक्ष्मण अत्यंत माहात्म्यको प्राप्त हुए। प्रीतियुक्त देव भी बादमें अपने स्थान पर चला गया। (८७) परभवके पुण्यसे मनुष्य वीर, बहुत रत्नोंसे समृद्ध, भोगोंसे युक्त तथा सुरूप होते हैं। विमल एवं धवल चित्तवाले जो पुरुष धर्म करते हैं वे शत्रु-सुभटोंके समूहके बीच भी यश प्राप्त करते हैं। (-) ॥ पद्मचरितमें विद्या-सन्निधान नामका उनसठवाँ पर्व समाप्त हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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