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________________ पउमचरियं [५६ ४१निहाधुम्मियनयणाण ताण हत्थाण आउहवराई । गाढं चिय मूढाणं, सिढिलीभूयाण निवडन्ति ॥ ४१ ॥ निद्दावसंगए चिय, निययभडे पेच्छिण सुग्गीवो । ताणं करण सिग्छ, विजं पडियोहणिं मुयइ ॥ ४२ ॥ अह ते विउद्धसन्ता, हणुयाईया समच्छरुच्छाहा । अहिययरं तेण सम, जुझं काऊणमाढत्ता ॥ ४३ ॥ धय-कवय-छिन्नछत्तं, संचुणिज्जन्तरहवर-तुरङ्ग । आलोइऊण सबलं, दहवयणो जुज्झिउं महइ ॥ ४४ ॥ जुझं समुच्छहन्तं, पियरं विन्नवइ इन्दइकुमारो । सन्तेण मए तुझं, ताय ! न जुत्तं रणं काउं॥ ४५ ॥ एयं चिय वित्थिण्णं. संघटुट्ठन्तगयघडाडोवं । थोवन्तरेण पेच्छसु, भज्जन्तं वाणराणीयं ।। ४६ ॥ जणयस्स सिरपणाम, काउं तेलोक्कमण्डणं हत्थी । सन्नद्धबद्धकवओ, आरूढो इन्दइकुमारो ॥ ४७ ॥ तं कइवराण सेन्नं, नाणाविहगय-तुरङ्ग-पाइक्कं । गसियं पिव निस्सेसं, उट्टियमेत्तेण वीरेणं ॥ ४८ ॥ आयण्णपूरिएहिं, सरेहि परिहत्थदच्छमुक्केहिं । तं वाणराण सेन्नं, मेहेण व छाइयं सब ॥ १९ ॥ हयवियविप्परद्धं, सुग्गीवो पेच्छिऊण निययबलं । भामण्डलेण समयं, समुट्ठिओ सुहडपरिकिण्णो ॥ ५० ॥ तुरएसु समं तुरया, आवडिया गयवरा सह गएसु । सामियकज्जुज्जुत्ता, जुज्झन्ति भडा सह भडेहिं ॥ ५१ ।। रुद्रेण इन्दईणं, भणिओ किकिन्धिनरवई एत्तो । लङ्काविं पमोत्तं, जं सेवसि भूमिगोयरियं ॥ ५२ ॥ एयं अज्ज तुह सिरं, सिग्धं छिन्दामि अद्धयन्देणं । सो कुणउ वाणराहम!, परिरक्खं सामिसालो ते ॥ ५३ ॥ तो भणइ वाणरवई, किं ते भड! बोक्किएहिं बहुएहिं ? । अज्ज तुह माणभङ्गं, करेमि न हु एत्थ मंदेहो ॥ ५४ ॥ सो एव भणियमेतो, चावं अप्फालिऊण सरनिवहं । मुञ्चइ दसाणणसुओ, किकिन्धिवइस्स आरुट्टो ॥ ५५ ॥ सो वि य तं एज्जन्तं, आयण्णाऊरिएहि बाणेहिं । छिन्दइ बलपरिहत्थो, निययाणियरक्खणट्टाए ॥ ५६ ॥ आँखोंवाले उन अत्यन्त मूढ़ सुभटोंके शिथिलीभूत हाथोंमेंसे आयुध गिर पड़े। (४१) निद्राके वशीभूत अपने सुभटोंको देख उनके त्राणके लिए सुग्रीवने शीघ्र ही प्रतिबोधिनी विद्या छोड़ी। (४२) तब प्रतिबुद्ध वे हनुमान आदि मत्सर और उत्साहसे युक्त हो उसके साथ और भी अधिक युद्ध करनेके लिए प्रवृत्त हुए। (४३) ध्वज, कवच और छत्रसे छिन्न तथा रथ और घोड़ोंसे चकनाचूर की जाती अपनी सेनाको देख रावण लड़नेका सोचने लगा। (४४) युद्धके लिए उत्साहशील पितासे इन्द्रजितकुमारने बिनती की कि, हे तात ! मेरे रहते आपके लिए युद्ध करना उपयुक्त नहीं है। (४५) इस वानर-सेनाको थोड़ी ही देरमें आप विच्छिन्न, संघर्षके कारण हाथियोंके विनाशसे व्याप्त तथा विनष्ट देखेंगे। (४६) पिताको प्रणाम करके तैयार हो और कवच पहनकर इन्द्रजित कुमार त्रैलोक्यमण्डल नामक हाथीपर सवार हुआ। (४७) उठने मात्रसे ही उस वीरने कपिवरोंके नानाविध हाथी, घोड़े तथा पैदल सैन्यको मानों सारेका सारा प्रस लिया। (४८) कानतक खेंचे हुए तथा चतुराई एवं दक्षताके साथ फेंके गये बाणोंसे बादलकी भाँति समग्र वानर-सैन्य छा गया। (४६) अपने सैन्यको क्षत-विक्षत एवं दुःखी देखकर सुभटोंसे घिरा हुआ सुग्रीव भामण्डलके साथ उठ खड़ा हुआ। (५०) घोड़ोंके साथ घोड़े और हाथियोंके साथ हाथी भिड़ गये। स्वामीके कार्यमें उद्यत सुभट सुभटोंके साथ युद्ध करने लगे। (५१) रुष्ट इन्द्रजितने किष्किन्धिके राजा सुग्रीवसे कहा कि, हे अधम वानर ! लंकानरेशका त्याग करके भूमिपर चलनेवालोंकी जो तू सेवाकर रहा है, उसके फलस्वरूप आज तेरा सिर जल्दी ही अर्धचन्द्र बाणसे काट डालता हूँ। तेरा वह मालिक तेरी रक्षा करे। (५२-५३) तब वानरपतिने कहा कि हे सुभट ! तेरे बहुत बकबक करनेसे फायदा क्या ? इसमें कोई संदेह नहीं कि आज मैं तेरा मानभंग करूँगा। (५४) इस प्रकार कहनेपर गुस्सेमें आया हुआ इन्द्रजित धनुषकी टंकार करके सुग्रीवके ऊपर बाण-समूह फेंकने लगा। (५५) बलसे परिपूर्ण वह भी अपनी सेनाकी रक्षाके लिए कानतक खेंचे हुए बाणोंसे आते हुए बाणोंको काटने लगा । (५६) उधर युद्धमें मेघवाहनने भामण्डलको ललकारा और प्रवेश करते हुए वनक्रको विराधितने रोका । (५७) रुष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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