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३६६ पउमचरियं
[५६. २१मा मे धरेहि सुन्दरि !, मुञ्चसु अन्नेहि रणजसो गहिओ । पेच्छन्ताण वरतणू !, अम्हं किं जीवियबेणं ॥ २१ ॥ धन्ना ते नरवसभा, भद्दे । जे रणमुह गया पढम | जुज्झन्ति सवडहुत्ता, जणयन्ता रिवुबलाकम्पं ॥ २२ ॥ करिवरदन्तुन्भिन्ना, डोलालीलाइयं रणे सहड़ा । रिवुकयसाहुक्कार, पुण्णेहि विणा न पावन्ति ॥ २३ ॥ एक चिय रणरागो, बिइयं चिय सुयणुपेम्मपडिबन्धो । पेम्मेण अमरिसेण य, दोणि वि भाए भडो जाओ ॥२४॥ ताण जणेण तिहुयणं, अलंकियं सुयणु ! वीरपुरिसाणं । जाण धणियस्स पुरओ, निवडन्ति रणम्मि असिघाया ॥२५॥ एएसु य अन्नेसु य, महुरालावेसु निययकन्ताओ । संथाविऊण सुहडा, निम्गन्तुं चेव आढत्ता ॥ २६ ॥ पढम विणिग्गया ते, हत्थ-पहत्था पुरीऍ बलसहिया । मारीजी सीहकडी, तह य सयंभू अइबलो य ॥ २७ ॥ सुय-सारणा य एत्तो, सूरससङ्का गयारि-वीहत्था । वज्जक्खो वज्जधरो, गभीरणाओ य नक्को य ॥ २८ ॥ मयरो कुलिसनिणाओ, सुन्द निसुन्दो य उग्गणाओ य । कुरो य मालवन्तो, सहसक्खो विब्भमो चेव ॥ २९ ॥ खरनिस्सणो य जम्बू, माली सिहि दुद्धरो महाबाहू । एए रहेसु सुहडा, विणिग्गया सीहजुत्तेसु ॥ ३० ॥ वज्जोयरो कयन्तो इन्दाहोऽसणिरहो य चन्दणहो । वियडोयरो य मच्चू, सुभीसणो कुलिसउदरो य ॥ ३१ ॥ धूमक्खो मुइओ वि य, तडिनीहो तह भवे महामाली । कणओ कोहण-निहणो, धूमुद्दामो य खोभो य ॥ ३२ ॥ हिण्डी तहा मरुसरो, पयण्डडमरो य चण्डकुण्डो य । हालाहलमाईया, रहेसु दढवग्धजुत्तेसु ॥ ३३ ॥ विज्जासुकोसिओ विय, भयंगबाहू महाजुई चेव । सङ्खो तहा पसङ्खो, राओ भिन्नञ्जणाभो य ॥ ३४ ॥ नामेण पुप्फचूलो, रत्तवरो पुप्फसेहरो य तहा । सुहडो अणकुसुमो, घण्टत्थो कामवण्णो य ॥ ३५॥ मयणसरो कामम्गी, अणरासी सिलीमुहो चेव । कणओ सोम-सुवयणो, तह य महाकाम हेमाभो ॥ ३६ ॥
एए वि रहवरेहिं, वाणरजुत्तेहि निग्गया सुहडा । संगामजणियरागा, अहियं चिय मुक्कबुक्कारा ॥ ३७ ॥ हे सुन्दरी ! मुझे मत पकड़े रखो, छोड़ो। हे वरतनु ! हमारे देखते-देखते दूसरोंने युद्धका यश ले लिया। हमारे जीवित रहनेसे क्या फायदा ? (२१) हे भद्रे ! वे नरवृपभ श्रेष्ठ हैं जो पहले युद्ध में गये। वे शत्रुसैन्यमें थरथराहट पैदा करके सामने जूझ रहे हैं। (२२) युद्धमें हाथियों के दाँतोंसे चीरे गये सुभट हिंडोलेकी लीला तथा शत्रुओंके द्वारा किया गया साधुकार पुण्यके बिना नहीं पाते । (२३) एक तरफ युद्धका राग और दूसरी तरफ सुन्दरीके प्रेमका प्रतिबन्ध ! प्रेमसे
और आमर्षसे भट दो भागोंमें विभक्त हो गया। (२४) हे सुतनु ! उन वीर पुरुषोंके यशसे त्रिभुवन अलंकृत हो गया, जिन पर स्वामीके समक्ष ही युद्ध में तलवारके प्रहार पड़ते हैं। (२५) इन तथा ऐसे ही दूसरे मधुर आलापोंसे अपनी-अपनी स्त्रियोंको आश्वासन देकर सुभट निकलने लगे। (२६)
सर्व प्रथम नगरीमेंसे सेनाके साथ हस्त और प्रहस्त निकले, तब मारीचि, सिंहकटि, स्वयम्भू, अतिबल, शुक, सारण, सूर्य, शशांक, गजारि, बीभत्स, वाक्ष, वनधर, गंभीरनाद, नक, मकर, कुलिश-निनाद, सुन्द, निसुन्द, उग्रनाद, क्रूर, माल्यवान, सहस्राक्ष, विभ्रम, खरनिस्वन, जम्बू, माली, शिखी, दुर्धर, महाबाहु-ये सुभट सिंह जुते हुए रथोंमें निकल पड़े। (२७-३०) वमोदर, कृतान्त, इन्द्राभ, अशनिरथ, चन्द्रनख, विकटोदर, मृत्यु, सुभीषण, कुलिशोदर, धूम्राक्ष, मुदित, तडिज्जिह्व, महामाली, कनक, क्रोधन, निधन, धूम्रोदाम, क्षोभ, हिण्डी, मरुत्स्वर, प्रचण्डडम्बर, चण्डकुण्ड तथा हालाहल आदि बाघ जुते हुए मज़बूत रथोंमें बैठकर निकल पड़े। (३१-३३) विद्याकौशिक, भुजंगबाहु, महाद्युति, शंख, प्रशंख, राग, भिन्न, अंजनाभ, पुष्पचूल, रक्तवर, पुष्पशेखर, सुभट, अनंगकुसुम, घटस्थ, कामवर्ण, मदनशर, कामाग्नि, अनङ्गराशि, शिलीमुख, कनक, सोमवदन, महाकाम, हेमाभ-संप्रामके लिए जिन्हें राग उत्पन्न हुआ है ऐसे ये सुभट बानर जुते हुए रथोंमें आरूढ़ होकर बहुत गर्जना करते हुए निकले । (३४-३७) भीम, कदम्बविटप, गजनाद, भीमनाद,
१. रणरसो-प्रत्यः।
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