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________________ ३६० पउमचरियं [५४.३९अह ते खणेण पत्ता, वेलंघरपवयं मणभिरामं । वेलंधरपुरसामी, जत्थ समुद्दो वसइ राया ॥ ३९ ॥ वाणरबलं निएउ, तत्थ समुद्दो विनिग्गओ सिग्धं । निययबलेण समग्गो, नलस्स जुज्झे समावडिओ ॥ ४०॥ अह सो समुदराया, नलेण निणिऊण रणमुहे बद्धो । मुक्को य निययनयरे, परिडिओ राहवं पणओ ॥ ११ ॥ रयणसिरी कमलसिरी, रयणसलाया तहेव गुणमाला । एयाउ समुद्देणं, दिनाओ लच्छिनिलयस्स ॥ ४२ ॥ तस्थ सुवेलपुरवरे, रयणिं गमिऊण उग्गए सूरे । लङ्काहिमुहा चलिया, जयसढुग्घुट्ठतूररवा ॥ ४३ ॥ वाणरबलेण दिट्ठा, लंका वरभवण-तुङ्गपागारा । सागरवरस्स मज्झे, आरामुज्जाणसुसमिद्धा ॥४४॥ नयरीएँ समासन्ने, हंसद्दीवं तओ समणुपत्ता । अह ते हंसरहनिवं, जिणिऊणं वासिया तत्थ ॥ ४५ ॥ भामण्डलस्स पुरिसो, रामेण पवेसिओ पवणवेगो । गन्तूण तस्स सबं, विग्गहमादौ परिकहेइ ॥ ४६॥ जत्तो जत्तो विहियसुकया जन्ति वीरा मणुस्सा, तत्तो तत्तो विनियरिउणो भोगसङ्ग लहन्ति । ताणं लोए न भवइ परं किंचि कर्ज असझं, तम्हा धर्म कुणह विमलं लोगनाहाणुचिणं ॥४७॥ ॥ इय पउमचरिए लङ्कापत्थाणाभिहाणं नाम चउपन्नासइमं पव्वं समत्तं ॥ ५५. विभीसणसमागमपव्वं अह तत्थ वाणरबलं, समागय नाणिऊण आसन्ने । वेला लवणजलस्स व, खुहिया लंकापुरी सवा ॥ १ ॥ आरुट्ठो दहवयणो, निययं मेलेइ साहणं सयलं । नाया घरे घरे चिय, संगामकहा जणवयस्स ॥ २ ॥ संगाममहामेरी, पहया पडुपडह-तूरसंघाया । सद्देण तेण सुहडा, · सन्नद्धा सामियं पत्ता ॥ ३ ॥ उस वेलन्धर पर्वतके पास आ पहुँचे । (३६) वहाँ वानर-सैन्यको देखकर अपने समग्र सैन्यके साथ समुद्र सामना करनेके लिए शीघ्र ही निकल पड़ा और नलके साथ युद्धमें भिड़ गया । (४०) बादमें नलने युद्ध में जीतकर समुद्र राजाको बाँध लिया। रामके आगे प्रणत होने पर वह छोड़ दिया गया तथा अपने नगरमें प्रतिष्ठित किया गया। (४१) रत्नश्री, कमलश्री. रत्नशलाका तथा गुणमाला-ये कन्याएँ समुद्रने लक्ष्मणको दी। (४२) उस सुवेलपुरमें रात बिताकर सूर्य उगने पर जयध्वनिका उद्घोष करनेवाले वाद्योंकी आवाजके साथ वे लंकाकी ओर चले । (४३) वानरसेनाने उत्तम भवन एवं ऊँचे किलेवाली तथा आराम एवं उद्यानोंसे सुमृद्ध लंकाको सागरके मध्यमें देखा । (४४) लंकानगरीके समीपमें आये हुए हंसदीपमें वे पहुँचे। हंसरथ राजाको जीतकर वे वहाँ ठहरे । (४५) पवनके जैसा वेगवाला एक पुरुष रामने भामण्डलके पास भेजा। जा करके उसने सारा विग्रह आदिका वृत्तान्त कह सुनाया। (४६) सुकृत करनेवाले मनुष्य जहाँ जहाँ जाते हैं वहाँ शत्रोंको जीतकर भोगका संसर्ग प्राप्त करते हैं। उनके लिए लोकमें कोई भी कार्य असाध्य नहीं होता। अतः लोकनाथों द्वारा अनुष्ठित विमल धर्मका पालन करो। (४७) ॥ पद्मचरितमें लंकाको ओर प्रस्थान नामक चौवनवाँ पर्व समाप्त हुआ । ५५. विभीषणका समागम समीपमें बानरसेना आई है ऐसा जान लवणसागरके किनारेकी भाँति सारी लकापुरी क्षुब्ध हो गई। (१) क्रड रावणने अपनी सारी सेना इकट्ठी की। लोगोंके घर-घरमें युद्धकी बात होने लगी। (२) बड़े-बड़े ढोल और वायोंके साथ युद्धकी महाभेरि बजाई गई। उससे उत्पन्न शब्दसे तैयार हो सब सुभट स्वामीके पास आ पहुँचे । (३) तब संग्रामके लिए १. पुरीए पया-प्रत्य.। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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