________________
३५४
५४.३८]
५४. लङ्कापत्थाणपव्वं एत्तो य वज्जदन्तो, उक्काल-ऽङगूल-दिणयरो वीरो। उज्जलकित्ती हणुओ, हवइ य भामण्डलो राया ॥ २३ ॥ अन्नो महिन्दकेऊ, पवणगई तह पसन्नकित्ती य । एए अन्ने य बहू, अत्थि भडा वाणरबलम्मि ॥ २४ ॥ दट्टण वाणरभडे, मज्झत्थे राहवो अइतुरन्तो । भिउडीए कुडिलमुहो, खणेण जाओ कयन्तो व॥२५॥ घेत्तृण चावरयणं, अप्फालइ सजलजलहरनिणार्य । दिट्टि च विज्जसरिसं, देइह लकापुरितेण ॥ २६ ॥ पलयरविसन्नियासं, रामं दट्टण वाणरा सबे । सिग्धं च गमणसज्जा, जाया परिहत्थउच्छाहा ॥ २७ ॥ मग्गसिरबहुलपक्खे, पञ्चमिदिवसे दिवायरे उदिए । सुहकरण-लग्ग-जोए, अह ताण पयाणयं जायं ॥ २८॥ दिट्ठो सिही जलन्तो, निधूमो पयलदाहिणावत्तो । आहरणभूसियङ्गी, महिला सेओ य जच्चासो ॥ २९ ॥ निम्गन्थमुणिवरिन्दो, छत्तं हयहेसियं तहा कलसो । पवणो य सुरहिगंधो. अहिणवं तोरणं विउलं ॥ ३० ॥ खीरदुमम्मि य वासइ, वामन्थो वायसो चलियपक्खो। वरमेरि-सङ्ख्सद्दो, सिद्धी सिग्धं पयासेन्ति ॥ ३१ ॥ एए अन्ने य बहू, पसत्थसउणा पयाणकालम्मि । जाया य मङ्गलरवा, लाहिमुहस्स रामस्स ॥ ३२ ॥ जह चन्दो परिवठ्ठइ, सियपक्खे तह य खेयरबलेणं । आपूरइ पउमाभो, अहियं सुम्गीवसन्निहिओ ॥ ३३ ॥ राया किकिन्धिवई. हणुओ दुम्मरिसणो नलो नीलो । तह य सुसेणो सल्लो, बहवे कुमुयाइणो सुहडा ॥ ३४ ॥ एए वाणरचिन्या, महाबला सयलसाहणसमम्गा । गसमाणा इव गयणं, जन्ति महातूरकयसदा ॥ ३५॥ हारो विराहियस्स वि, चिन्धं जम्बूणयस्स वडरुक्खो । सीहरवस्स य सीहो, हत्थो पुण मेहकन्तस्स ॥ ३६ ॥ जाणेसु वाहणेसु य, विमाण-गय-तुरय-रहवराईसु । गन्तुं समुज्जया ते, लङ्काहिमुहा पवणवेगा ॥ ३७ ॥ दिबविमाणारूढो, पउमो सह लक्खणेण वच्चन्तो । रेहइ सुहडपरिमिओ, इन्दो इव लोयपालेहिं ॥ ३८ ॥
पवनगति तथा प्रसन्नकीर्ति-ये तथा दूसरे भी बहुत-से सुभट वानरसैन्यमें हैं। (२१-२४) वानर-सुभटोंको उदासीन देखकर अतिशीघ्र भौहें चढ़ानेसे भयंकर मुखवाले राम क्षणभरमें यम जैसे हो गये। (२५) चापरत्नको उठाकर उन्होंने सजल बादलोंकी गर्जनाकी भाँति उसका आस्फालन किया तथा विजली जैसी दृष्टि लंकापुरी पर लगाई । (२६) प्रलयकालीन सूर्य सरीखे रामको देखकर उत्साहसे परिपूर्ण सब वानर शीघ्र ही गमनके लिए तैयार हो गये। (२७)
अगहन महीनेके कृष्ण पक्षकी पञ्चमीके दिन सूर्योदय होने पर शुभकरण और लग्नके योगमें उनका प्रयाण हुआ। (२८) उस समय दक्षिणावर्तवाली और निर्जूम जलती आग, आभूषणोंसे विभूषित शरीरवाली स्त्री, उत्तम जातिका श्वेत घोड़ा, निर्ग्रन्थ मुनिवर, छत्र, घोड़की हिनहिनाहट, कलश, मीठी गन्धवाला पवन, विशाल अभिनव तोरण, क्षीरवृक्षके ऊपर बाई ओर स्थित चंचल पंखवाले कौएका बोलना तथा उत्तम भेरि व शंखका शब्द-ये शीघ्र सफलताकी सूचना कर रहे थे। (२६-३१) ये तथा दूसरे भी बहुतसे शुभ शकुन तथा मंगल शब्द लंकाकी ओर प्रयाण करते समय रामको हुए। (३२) जिस प्रकार शुक्ल पक्षमें चन्द्रमा बढ़ता है उसी प्रकार सुग्रीवसे युक्त रामकी कान्ति खेचर सेनाके कारण अधिक बढ़ रही थी। (३३) किष्किन्धिपति राजा सुग्रीव, हनुमान, दुर्मर्षण, नल, नील, सुषेण, शल्य तथा कुमुद आदि बहुतसे सुभटवानरके चिह्नवाले ये महाबली तथा समग्र सैन्यसे सम्पन्न हो बड़े बड़े वाद्योंसे शब्द करते हुए मानो आकाशको प्रसते हों इस तरह चल पड़े। (३४-३५) विराधितका चिह्न हार, जाम्बूनदका चिह्न वटवृक्ष, सिंहरवका चिह्न सिंह तथा मेघकान्तका चिह्न हाथी शोभित हो रहा था। (३६) विमान, हाथी, घोड़े एवं रथ आदि यान और वाहनमें पवनके जैसे वेगवाले वे लंकाकी
ओर जानेके लिए उद्यत हुए। (३७) लक्ष्मणके साथ दिव्य विमानमें प्रारूढ़ होकर जाते हुए तथा सुभटोंसे घिरे हुए राम लोकपालोंसे घिरे हुए इन्द्रकी भाँति शोभित हो रहे थे। (३८) क्षण भरमें ही वे जहाँ वेलन्धरपुरका स्वामी समुद्र रहता था
१. सिद्धि-प्रत्य।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org