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________________ ३४६ ५३.४०] ५३. हणुवलकानिग्गमणपव्वं कह तुज्झ तेण समय, परिणाई तक्खणेण उप्पनो। लड्डेऊण जलनिही, कह कारणवजिओ आओ! ॥ २५ ॥ एयं कहेहि सुन्दर, सवित्थर सच्चसाविओ तुहयं । इच्छामि अहं सोउं, मा विक्खेवं कुणसु एत्तो ॥ २६ ॥ भणइ तओ हणुमन्तो, सामिणि ! निसुणेहि तत्थ आरण्णे। लच्छीहरेण गहिओ, रविहासो असिवरो एत्तो ॥ २७ ॥ तं लक्खणेण वहियं, चन्दणहा पेच्छिऊण निययसुयं । रोसेइ दइयय सा. देह य वत्तं दहमुहस्स ॥ २८ ॥ जाव य रक्खसणाहो, आगच्छद ताव दूसणो पत्तो । संगामसमावन्नो, जुज्झइ लच्छीहरेण समं ॥ २९ ॥ ताव य लकाहिवई, तुरिओ य समागओ तमुद्देस । नवरं दट्टण तुम, पत्तो आयल्लयं परमं ॥ ३० ॥ मुश्चइ सीहरवं सो, सुणिऊणं जाव राहवो पत्तो । वच्चइ संगाममुह, ताव तुर्म अवहिया तेणं ॥ ३१ ॥ दिट्ठो य लक्खणेणं, सिग्धं संपेसिओ तुह सयासं । पडियागओ न पेच्छइ. ताहे ओमुच्छिओ रामो ॥ ३२ ॥ आसत्थो तुज्झ कए, परिहिण्डन्तो य पेच्छइ जेडागी । पञ्चनमोक्कारमिणं, देइ मरन्तस्स पउमाभो ॥ ३३ ॥ लच्छीहरो वि पत्तो, हन्तुं खरदूसणं तमुद्देस । संपत्थिओ य पेच्छइ. तुमए रहियं पउमनाहं ॥ ३४ ॥ सुग्गीवेण समाणं, समागओ आगवो य किक्किन्धि । मारेइ साहसगई, · रामो कइरूवदेहधर ॥ ३५ ॥ तस्सुवयारस्स फुडं, वत्ताए रयणकेसिसिट्टाए । पडिउवयारनिमित्तं, गुरूहि संपेसिओ अहयं ॥ ३६ ॥ पीईएँ रक्खसिन्द, मोएमि तुमं न चेव कलहेणं । अवसेण कजसिद्धि, हवइ नयं ववहरन्ताणं ।। ३७ ॥ सो विज्जाहरसामी, धीरो कारुण्ण-सच्चवाई य । धम्मत्थविवेयन्न , अवस्स मह काहिई वयणं ॥ ३८ ॥ उत्तमकुलसंभूओ, उत्तमचरिएहि उत्तमो लोए । अववायपरिब्भीओ, नियमेण तुमं समप्पिहिइ ॥ ३९ ॥ सुणिऊण य परितुट्टा, एयं चिय जणयनन्दिणी भणइ । हणुवन्त ! तुमे तुला, केचियसुहडा मह पियस्स ॥ ४०॥ उनके साथ उसी समय तुम्हारा परिचय कैसे हुआ ? बिना प्रयोजनके तुम समुद्रको लाँघकर कैसे आये ? (२५) हे सुन्दर ! तुम सच्चे श्रावक हो, अतः यह सब विस्तारसे कहो। मैं सुनना चाहती हूँ। अब तुम देर मत लगाओ। (२६) तब हनुमानने कहा कि, हे स्वामिनी! आप सुनें। उस अरण्यमें लक्ष्मणने सूर्यहास नामकी उत्तम वलवार ले ली। (२७) लक्ष्मण द्वारा मारे गये अपने पुत्रको देखकर चन्द्रनखाने पतिको क्रोधित किया और रावणके पास उसने समाचार भेजा । (२८) जबतक राक्षसनाथ रावण आ पहुँचता है तबतक तो खरदूषण आ गया। लड़ाई होने लगी और लक्ष्मणके साथ युद्ध करने लगा। (२९) उसी समय रावण जल्दी जल्दी उस प्रदेशमें आया। बादमें आपको देख वह अत्यन्त बेचैन हो गया। (३०) उसने सिंहध्वनि की। उसे सुनकर राम जब तक संग्राम भूमिमें पहुँचे तबतक तो उसने आपका अपहरण किया। (३१) लक्ष्मणने देखकर शीघ्र ही उन्हें आपके पास भेजा। लौटे हुए रामने जब आपको न देखा तो वे मूर्छित हो गये। (३२) होशमें आने पर आपके लिए घूमते हुए रामने जटायुको देखा। उन्होंने मरते हुए उसे पंचनमस्कार दिया । (३३) लक्ष्मण भी खरदूषणको मारकर रवाना हुआ और उस प्रदेशमें आ पहुँचा। वहाँ उसने आपसे रहित रामको देखा । (२४) सुग्रीवके साथ उनकी भेंट हुई। किष्किन्धिमें आकर वानरके जैसा शरीर धारण करनेवाले साहसगतिको रामने मारा । (३५) रत्नकेशी द्वारा स्फुट रूपसे कही गई बातसे उनके उपकारका बदला चुकानेकी दृष्टिसे गुरुजनों द्वारा में भेजा गया हूँ। (३६) राक्षसेन्द्र रावणको प्रेमपूर्वक समझाकर मैं आपको छुड़ाऊँगा, कलहसे नहीं। नीतिपूर्वक व्यवहार करनेवालोंको अवश्य कार्यसिद्धि होती है। (३७) धीर, दयालु, सत्यवादी और धर्मार्थके विवेकको जाननेवाला वह विद्याधर स्वामी मेरा कहना अवश्य करेगा । (३८) उत्तम कुलमें उत्पन्न, उत्तम चारित्र्यसे लोकमें उत्तम तथा अपवादसे डरनेवाला वह अवश्य तुमको सौंप देगा। (३६) यह सुनकर आनन्दमें आई हुई सीताने पूछा कि, हे हनुमान ! तुम्हारे जैसे मेरे प्रियके कितने सुभट हैं ? (४०) १. जलनिहिं–प्रत्य० । २. जडागि-प्रत्य। ३. तुमे विमुक्कं पउमनाहं--मु०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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