________________
३२८
. . . पउमचरियं . . आइञ्चरयस्स सुया, सहोयरा नाम वालि-सुग्गीवा । किक्किन्धिपुराहिवई, वाणरकेऊ महासत्ता ॥ ९॥ वाली विक्खायजसो, सुम्गीवं ठाविऊण रज्जम्मि । अहिमाणेण विउद्धो, पबज्जमुवागओ धीरो ॥ १० ॥ सुग्गीवो वि य रज, कुणइ सुताराऍ संजुओ निययं । किकिन्धिमहानयरे, गर्य पि कालं अयाणन्तो ॥ ११ ॥ पुणरवि य वित्थरेणं, जंपइ जम्बूणओ कयपणामो । दुक्खस्स कारणमिणं, एयस्स पह! निसामेह ॥ १२ ॥ अह देव! को वि दुट्ठो. मायावी दाणवो बलुम्मत्तो । वाणरवइस्स रूवं, काऊण पुरं समल्लीणो ॥ १३ ॥ मन्तीण अमुणिओ सो, पविसइ सुग्गीवसन्तियं भवणं । वरजुवइकयसणाह, जत्थ सुतारा सय वसइ ॥ १४ ॥ दढ ण त सुतारा, लक्खणरहियं मणेण उबिग्गा । अवसरइ तत्थ सिग्छ, मन्तिजणं चैव अल्लीणा ॥ १५ ॥ सो वि य लीलायन्तो, सुग्गीवस्साऽऽसणे सुहनिविट्ठो । ताव य वालिकणिट्ठो, निययं भवणं समणुपत्तो ॥ १६ ॥ तं निययरूवसरिसं, दवणं भवणमझयारम्मि । रुट्ठो वाणरनाहो, अह गज्जइ गरुयगम्भीरं ॥ १७ ॥ मोत्तण सिंहनाय, अवइण्णो तत्थ अलियसुग्गीवो । अह जुज्झिउं पवत्तो, समयं चिय वाणरिन्देणं ॥ १८ ॥ सिरिचन्दमाइयाणं, मन्तीणं तत्थ सा महादेवी । साहइ लक्खणरहिओ, कोइ इमो खेयरो दुट्ठो ॥ १९ ॥ सोऊण तीऍ वयणं, एगन्ते मन्तिणो उ मन्तेउ । साहन्ति पत्थिवाणं, रक्खह अन्तेउरं एयं ॥ २०॥ . अक्खोहिणीसु सत्तसु, सहिओ च्चिय अङ्गओ स सुग्गीवं । परिगिण्हइ अङ्गो पुण, कित्तिमई तत्तियबलेणं ॥ २१ ॥ नयरस्स दक्खिणेणं, ठविओ मन्तीहि अलियसुग्गीवो । फुडसुग्गीवो वि लहु, उत्तरपासे परिट्ठविओ ॥ २२ ॥ नामेण चन्दरस्सि, पुत्तो वालिस्स असिवरं घेत्तं । रक्खइ साहणसहिओ, भवणदुवार सुताराए ॥ २३ ॥ अह ते दो वि कइवरा, अलहन्ता दरिसणं सुताराए । जाया समुस्सुयमणा, मयणाणलदीवियसरीरा ॥ २४ ॥
कन्ताविओयदुहिओ, चिन्ते तत्थ सच्चसुग्गीवो । हणुवस्स गओ पास, कहेइ सर्व निययदुर्ख ॥ २५॥ सग्रीव नामके दो पुत्र थे। कपिध्वज और अतिसमर्थ वे किष्किन्धिपुरके अधिपति थे। (8) अभिमानके कारण सुग्रीवको राजगद्दी पर स्थापित करके जागृत हो विख्यातयश और धीर बालिने प्रव्रज्या अंगीकार की। (१०) सुतारासे संयुक्त सुग्रीव भी किष्किन्धिनगरीमें अपना राज्य करता था। खबर भी न पड़े इस तरह काल व्यतीत होता गया। (११)
जाम्बूनदने प्रणाम करके पुनः विस्तारसे कहा कि, हे प्रभो! इनके दुःखका यह कारण आप सुनें। (१२) एक दिन कोई दुष्ट, मायावी और बलोन्मत्त दानव वानरपति सुप्रीवका रूप धारण करके नगरमें आया। (१३) मंत्रियों द्वारा नहीं पहचाना गया वह उत्तम खियोंसे युक्त तथा जहाँ सुतारा स्वयं रहती थी ऐसे सुग्रीवके भवनमें प्रविष्ट हुआ। (१४) सुग्रीवके जो परिचायक लक्षण थे उन लक्षणोंसे रहितं उसे देखकर मनमें उद्विग्न सुतारा वहाँ से एकदम छटक गई और मंत्रियोंके पास जा पहुँची। (१५) वह (प्रच्छन्न सुग्रीव.) भी लीला करता हुआ सुग्रीवके सिंहासन पर आरामसे जा बैठा। उसी समय बालिका छोटा भाई सुग्रीव अपने भवनमें आया। (१६) अपने रूपके जैसे रूपवाले उसको अपने भवनमें देखकर रुष्ट वानरनाथने बड़ी भारी और गम्भीर गर्जना की । (१७) झूठा सुग्रीव भी सिंहनाद करके नीचे उतरा और वानरेन्द्र सुग्रीवके साथ युद्ध करने लगा। (१८) उस समय उस पटरानीने श्रीचन्द्र आदि मन्त्रियोंसे कहा कि लक्षणरहित यह कोई दुष्ट खेचर है। (१९) उसका कथन सुनकर और एकान्तमें मंत्रणा करके मंत्रियोंने राजाओंसे कहा कि तुम इस अन्तःपुरकी रक्षा करो। (२०) सात अक्षौहिणीसे युक्त अंगदने सुप्रीवको अंगीकार किया तो अंग (सुग्रीवके पुत्र) ने सतनी ही सेनाके साथ कृत्रिम सुप्रीवका अवलम्बन लिया। (२१) मंत्रियोंने मिथ्या सुग्रीवको नगरके दक्षिण भागमें स्थापित किया और सो सुप्रीवको भी शीघ्र ही उत्तर भागमें ठहराया। (२२) वालिका चन्द्ररश्मि नामका पुत्र तलवार लेकर सेनाके साथ सुताराके भवनके द्वारकी रक्षा करने लगा । (२३) इसके बाद मदनाग्निसे प्रदीप्त शरीरवाले वे दोनों कपिवर सुवाराका दर्शन न पाकर मनमें अत्यन्त टत्सुक हो गये। (२४) कान्ताके वियोगसे दुःखिर सचा सुग्रीव सोच करके हनुमानके पास गया और अपना सारा दुख कह सुनाया। (२५) उसका कहना सुनकर अप्रविघात नामक उत्तम विमानसे हनुमान सैन्यके साथ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org