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३२६ .. पउमचरियं...
[४६.८० गन्तूण सबमेयं, कहन्ति लाहिवस्स दूईओ । ना न कुणइ आहार, सा किह सामी तुम महइ ! ॥ ८ ॥ तनो सो दहवयणो, मयणाणलपज्जलन्तसबङ्गो । पडिओ वसणसमुद्दे, अहियं चिन्ताउरो जाओ ॥ ८१ ॥ सोयइ गायइ विलवइ, दीहुण्हे तत्थ मुयइ नीसासे । कोट्टिमतलं निसण्णो, अप्फालइ दाहिणकरेणं ॥ ८२ ॥ सहसा समुट्ठिऊणं, बच्चइ भवणाउ निग्गओ सन्तो । पुणरवि नियत्तइ लहूं, सीया सीय त्ति नंपन्तो ॥ ८३ ॥ लोलइ कमलोत्थरणे, सिचन्तो बहलचन्दणरसेणं । उट्ठइ चलइ वियम्भइ. गहिओ मयणग्गितावेर्ण ॥ ८४ ॥ नंपइ भुयासु तुलिओ, कइलासो खेयरा निया सवे । सो किह मोहेण अहं, मसिरासिनिरूविओ काउं? ॥८५॥ अच्छउ ताव दहमुहो, मन्तीहि समं बिहीसणो मन्तं । काऊण समाढत्तो, भाइसिणेहुज्जयमईओ ॥ ८६ ॥ संभिन्नो भणइ तओ, अम्हं सामिस्स दइवनोगेणं । पडिओ दाहिणहत्थो, चिय खरदूसणो निहओ ॥ ८७ ॥ सुहकम्मपहावेणं, विराहिओ लक्खणस्स संगामे । सिग्धं च समणुपत्तो, वहमाणो बन्धवसिणेहं ॥ ८८ ॥ चलिया य इमे सबे, कइद्धया पवणपुत्तमाईया । काहिन्ति पक्खवाय, ताणं सुग्गीवसन्निहिया ॥ ८९ ।। अह भणइ पञ्चवयणो, मन्ती मा भणह दूसणं वहियं । सूराण गई एसा, सुहडाणं हवइ संगामे ॥ ९० ॥ जइ चियतस्स सहीणो, विराहिओ असिवरं चरविभासं । लङ्काहिवस्स तह विय, किं कीरइ लक्खणेण रणे? ॥ ९१ ॥ भणिओ सहस्समइणा, पञ्चमुहो किं व अत्थहीणाई। वयणाइ भाससि तुमं, अगणिन्तो सामियस्स हियं ? ॥ ९२ ॥ मा परिहवह कयाई, तुब्भे नाऊण वेरियं थोवं । अप्पो वि देसयाले, किं न डहइ तिहुयणं अग्गी? ॥ ९३ ॥
विज्जाहराण राया, आसम्गीवो महाबलसमग्गो । थोवेण वि संगामे, निहओ पुर्वि तिवुट्टेणं ।। ९४ ॥ दूतियाँ जा करके यह सब रावणसे कहती थीं कि, हे स्वामी ! जो आहार नहीं करती वह कैसे आपकी पूजा कर सकती है ? (८०)
__ तब मदनरूपी आगसे जिसका सारा शरीर जल रहा है ऐसा वह रावण अधिक चिन्तातुर हो मानो दुःखके सागरमें गिर पड़ा। (८१)
भवनमें बैठा हुआ रावण शोक करता था, गाता था, विलाप करता था, दीर्घ निःश्वाश छोड़ता था तथा दाहिना हाथ पटकता था। (८२) एकदम खड़े होकर और भवनमें से बाहर निकलकर वह चलने लगता था और जल्दी ही 'सीता ! सीता !' कहता हुआ वापस लौट आता था । (३) चन्दनका गाढ़ रस सींचता हुआ वह कमलके विछौनेपर लोटता था। मदनाग्निके तापसे गृहीत वह उठता था, चलता था और जमुहाई लेता था। (८४) वह मन-ही-मन कहता था कि मैंने भुजाओंसे कैलासको उठाया है, सब खेचरोंको जीत लिया है। ऐसा मैं मोहके वशीभूत हो स्याहीके ढेरके जैसा काला काम करनेके लिए क्यों प्रवृत्त हुआ हूँ ? (८५)
रावणको रहने दो-ऐसा सोचकर भातृस्नेहसे उद्यत बुद्धिवाला विभीषण मंत्रियोंसे परामर्श करने लगा। (६) सब सम्मिन्नने कहा कि दैवयोगसे खरदूषण जो मारा गया है उससे तो हमारे स्वामी का दाहिना हाथ ही कट गया है। (८७) शुभ कर्मके उदयसे लक्ष्मणके संग्राममें बन्धुजनके स्नेहको धारण करनेवाला विराधित शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचा है। (८) सुग्रीवके पास रहनेवाले हनुमान आदि ये सब चंचल कपिध्वज उसका पक्षपात करते हैं। (८९) तब पंचवदन मंत्रोने कहा कि ऐसा मत कहो कि दूषणका वध हुआ है। संग्राममें शूर सुभटोंकी गति ऐसी ही होती है। (९०) भले ही विराधित व सूर्यहास तलवार उसके अधीन हो, परन्तु युद्धमें लक्ष्मण रावणका क्या कर सकेगा ? (९१) इस पर सहस्रमतिने पंचमुखसे कहा कि स्वामीके हितका विचार न करके तुम क्या अर्थहीन वचन कह रहे हो ? (९२) शत्रुको थोड़ा मानकर उसका कभी तिरस्कार मत करो। देश और कालकी दृष्टिसे अल्प होने पर भी आग क्या त्रिभुवनको नहीं जलाती ? (६३) पूर्वकालमें बड़ी भारी सेनासे युक्त अश्वग्रीव नामका विद्याधरोंका राजा संग्राममें क्या थोड़े-से त्रिपृष्ठों द्वारा नहीं हराया गया था? (९४) अतः लंकाको कालसे जो क्षीण न हों ऐसे दुर्ग और प्राकारवाली बनाओ तथा लोगों और भृत्योंका अधिक
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