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________________ ३८. ४७ ] ३८. जियपउमावक्खाणं भणिओ य नरवईणं, कत्थ तुमं आगओ सि ? किं नामं । केणेव कारणेणं, भमसि महिं जेण एगागी ! ॥ भहस्स अहं दूओ, पत्तो हं एत्थ कारणवसेणं । तुह दुहियमाणभङ्गं, करेमि गबं वहन्तीए ॥ जो मज्झ सत्तिपहरं, सहइ नरो गाढकरयलविमुक्कं । सो नवरि माणभङ्गं, कुणइ य नत्थेत्थ संदेहो ॥ भइ तओ लच्छिहरो, एक्काए किं व मज्झ सत्तीए ? । मुञ्चसु पञ्च नराहिव !, सत्तीओ मा चिरावेहि ॥ वट्टइ जावुल्लाओ, ताव गवक्खन्तरेण जियपउमा । अह पुरिसवेसणी तं, मोत्तूण निएइ लच्छिहरं ॥ ३५ ॥ रइऊण अञ्जलिउड, कुणइ पणामं पसन्नहियया सा । सन्नाऍ लक्खणो च्चिय, भणइ भयं मुच पसयच्छि ! ॥ ३६॥ लच्छीहरेण भणिओ, किं पडिवालेसि अज्ज वि थिरत्तं ? । मुञ्चसु अरिदमण ! तुमं, मह सत्ती विउलवच्छयले ॥ ३७॥ एवभणिओ नरिन्दो, रुट्टो आबन्धिऊण परिवेदं । जलियाणलसंकासं, उग्गिरइ तओ महासत्तिं ॥ ३८ ॥ रहऊण य वइसाहं, ठाणं सदमो मुयइ सत्तिं । दाहिणकरेण सो वि य, गेण्हइ सत्ती अयतेणं ॥ ३९ ॥ चामकरेण य बीयं, धरेइ कक्खन्तरेण दो अन्ना । सोहइ चउदन्तसमो, सरिसो एरावणो चेव ॥ संकुद्धाभोगिसमा, संपत्ता पञ्चमा महासती । दसणेण सा वि गेण्हइ, मासं पिव सीहसरभेणं ॥ तत्तो गयणयलत्था, देवा मुञ्चन्ति कुसुमवरवासं । जयसद्दं कुणमाणा, पहणन्ति य दुन्दुही अन्नं ॥ भणिओय लक्खणं, अरिदमण ! पडिच्छ सत्तिपहरं मे । सुणिऊण वयणमेयं, भीओ राया सह जणेणं ॥ तत्तोसा जियपउमा, अवट्टिया लक्खणस्स पासम्मि । सोहइ सुराहिवस्स व, देवी दिवेण रूवेणं ॥ सुहडाण जणवयम्स य, पुरओ सत्तुंदमस्स कन्नाए । सुन्दररूवावयवो, सयंवरो लक्खणो गहिओ भणइ विणओणयङ्गो, सोमित्ती नरवई ! खमेज्जासु । जं किंचि वि दुच्चरियं, माम! तुमं ववसियं अम्हे ॥ दमणोवि एवं तं खामेऊण महुरवयणेहिं । भणइ य वरकल्लाणं, कुणसु इहं मज्झ धूयाए ॥ तुम कहाँ से आये हो ? तुम्हारा क्या नाम है और किस कारण अकेले पृथ्वीपर घूमते हो ? (३१) इसपर लक्ष्मणने कहा कि मैं भरतका दूत हूँ और यहाँ कारणवश आया हूँ । गर्व धारण करनेवाली तुम्हारी पुत्रीका मैं मानभंग करूँगा । (३२) तब राजाने कहा कि जो मनुष्य मेरे मजबूत हाथोंसे छोड़ी गई शक्तिके प्रहारको सहेगा वही केवल मानभंग कर सकेगा, इसमें सन्देह नहीं है । ( ३३ ) इसपर लक्ष्मणने कहा कि हे राजन् ! एक शक्तिकी तो क्या बात, पाँच शक्ति मुझपर छोड़ो । देर मत करो | (३४) जब उनमें ऐसा वार्तालाप होरहा था तब पुरुषका द्वेष करनेवाली जितपद्मा गवाक्ष में से उसको ( द्वेषको ) छोड़कर लक्ष्मणको देखने लगी । (३५) प्रसन्नहृद्या उसने हाथ जोड़कर प्रणाम किया । लक्ष्मणने भी संज्ञा द्वारा कहा कि हे विशालाक्षी ! भयका त्याग कर । (३६) लक्ष्मणने कहा कि, हे अरिदमन ! तुम अब भी प्रतीक्षा क्यों करते हो ? तुम मेरे विशाल वक्षस्थल पर शक्ति छोड़ो। (३७) || ४७ ॥ Jain Education International ३१ ॥ ३२ ॥ For Private & Personal Use Only ३३ ॥ ३४ ॥ ४० ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ ४३ ॥ ४४ ॥ ४५ || ४६ ॥ ऐसा कहने पर क्रुद्ध राजाने कमर कसकर जलती आग सरीखी महाशक्ति उगली । (३८) वैशाखस्थान (योद्धाका आसन - विशेष ) की रचना करके जितशत्रुने शक्ति छोड़ी और उसने भी दाहिने हाथ से अनायास ग्रहण कर ली । (३९) बाँये हाथसे दूसरी तथा बगलोंमें दो और धारण की। उस समय चतुर्दन्त ऐरावतकी भाँति वह शोभित रहा था । (४०) क्रुद्ध सर्प के समान पाँचवीं महाशक्ति आई। पंचानन सिंह जैसे दाँतसे माँस पकड़ता है उसी तरह उसने वह दाँतसे पकड़ ली। (४१) तब गगनतलमें रहे हुए देवोंने उत्तम पुष्पोंकी वर्षा की। जयध्वनि करनेवाले दूसरे देवोंने दुन्दुभि बजाई । (४२) लक्ष्मणने कहा कि, हे अरिदमन ! अब तुम मेरा शक्तिप्रहार ग्रहण करो । यह वचन सुनकर लोगोंके साथ राजा भयभीत हो गया । (४३) तब वह जितपद्मा लक्ष्मणके पास आकर खड़ी हुई । वह दिव्य रूपके कारण इन्द्रकी देवीकी भाँति शोभित हो रही थी । (४४) सुभटों, जनसमूह और शत्रुदमके समक्ष कन्याने सुन्दर रूप एवं अवयववाले तथा अपनी इच्छासे वरण किये गये. लक्ष्मणको अंगीकार किया । (४५) विनयसे झुके हुए शरीरवाले राजाने कहा कि, हे लक्ष्मण ! मैंने यदि कुछ भी तुम पर खराब आचरण किया हो तो तुम मुझे क्षमा करो । ( ४६ ) इस तरह मधुर वचनों द्वारा उससे क्षमा २९१ www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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