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३८. जियपउमावक्खाणं अह एत्तो विजयरहो, रइमाला नाम अत्तणो बहिणी । सुरवहुसमाणरूवा, देइ चिय लच्छिनिलयस्स ॥१॥ तं इच्छिऊण कन्नं, विणिग्गया दो वि सीयसंजुत्ता । संपत्ता विजयपुरं, चिट्ठन्ति तहिं नहिच्छाए ॥ २ ॥ अइविरियं पवइयं, सोऊणं नट्टियानिमित्तम्मि । सत्तुग्घयं हसन्तं, भरहो वारेइ मइकुसलो ॥ ३ ॥ धन्नो सो अइविरिओ, मा हससु कुमार ! मूढभावेणं । मोतूण विसयसुक्खं, जो जिणदिक्खं समणुपत्तो ॥ ४ ॥ जाव च्चिय एस कहा, वट्टइ तावाऽऽगओ सह बलेणं । पविसइ नरिन्दभवणं, विजयरहो पेच्छई भरहं ॥ ५॥ काऊण सिरपणामं, उवविट्ठो तस्स पायमूलम्मि । सम्माणलद्धपसरो, विजयरहो पत्थिवं भणइ ॥ ६ ॥ रइमालाएँ फणिट्टा, नामेणं विजयसुन्दरी कन्ना । सा तुज्झ मए दिन्ना, कुणसु अविग्घेण कल्लाणं ॥ ७ ॥ तीए पाणिग्गणं, भरहो काऊण परमरिद्धीए । अइविरियस्स सयासं, वच्चइ तुरएसु वेगेणं ॥ ८ ॥ संपत्तो नरवसभो, पेच्छइ गिरिकन्दरे समणसीहं । समसत्त-बन्धुहिययं, समसुह-दुक्खं भयविमुक्कं ॥ ९ ॥ पाएसु तस्स पडिओ, भरहो सामन्त-जणवयसमेओ । थोवन्तरं निविट्ठो, तस्स गुणुक्त्तिणं कुणइ ॥ १० ॥ नाह ! तुम अइविरिओ, एको च्चिय एत्थ तिहुयणे सयले । जो निययरायरिद्धि, अवहत्थेऊण पबइओ ॥ ११ ॥ माणुसजम्मस्स फलं, धीर ! तुमे पावियं निरवसेसं । तं खमसु मज्झ सुपुरिस!, जं दुच्चरियं कयं किंचि ॥ १२ ॥ तं पणमिऊण समणं, भरहो पडियागओ पसंसन्तो।। पविसरइ निययनयरिं, पुरजणअभिणन्दिओ मुइओ ॥ १३ ॥ सो विजयसुन्दरीए, सहिओ रज्ज महागुणं भरहो। भुञ्जइ सुरो व सग्गे, पणमियसामन्तवावीढो ॥ १४ ॥
३८. जितपद्मा आख्यान विजयरथने रतिमाला नामको देवकन्या जैसी रूपवाली अपनी बहन लक्ष्मणको दी। (१) उस कन्याकी अभिलाषा से सीताके साथ दोनों निकल पड़े, विजयपुर आ पहुँचे और यथेच्छ समय तक वहाँ ठहरे । (२) अतिवीय प्रबजित हुआ है ऐसा सुनकर नर्तिकाकी घटनाको लेकर हँसते हुए शत्रुघ्नको कुशल बुद्धिवाले भरतने रोका कि हे कुमार! विषयसुखका त्याग करके जिनदीक्षा जिसने अंगीकार को है ऐसा वह अतिवीय धन्य है। मूढ़भावसे तुम मत हँसो । (३-४) जब यह वार्तालाप हो रहा था, उसी समय विजयरथ सेनाके साथ आया और राजभवन में प्रवेश करके उसने भरतके दर्शन किये । (५), सिरसे प्रणाम करके उसके पैरोंके पास विजयरथ बैठा। किये गये सम्मानसे जिसने आनन्द प्राप्त किया है ऐसे उसने राजासे कहा । (६) विजयसुन्दरी नामकी रतिमालाकी छोटी बहन है। वह मैंने आपको दी है। आप निर्विघ्न विवाहमंगल करें। (७) खूब आडम्बरके साथ उससे शादी करके भरत घोड़ोंपर सवार हो वेगसे अतिवीर्यके पास गया । (८) वहाँ पहुँचकर राजाने पर्वतको गुफामें शत्रु और मित्रपर समान भाव रखनेवाले, सुख और दुःखमें सम तथा भयसे मुक्त उस श्रमण-सिंहको देखा। (९) सामन्त और जनसमूहके साथ भरत उसके पैरों में नमस्कार करके थोड़ी दूर बठो और उसके गुणोंका कीर्तन करने लगा । (१०) हे नाथ ! इस सारे त्रिभुवनमें आप अतिवीर्य ही एक ऐसे हैं जिसने अपनी राज्य-ऋद्धिका परित्याग करके प्रव्रज्या ली है। (११) हे धीर! आपने ही मनुष्यजन्मका समग्र फल प्राप्त किया है। हे सुपुरुष ! यदि मैंने तनिक भी दुश्चरित किया हो तो उसे आप क्षमा करें। (१२) इस तरह उसे प्रणाम जरके प्रशंसा करता हुआ भरत वापस लौटा। नगरजनों द्वारा अभिनन्दित और आनन्दित उसने अपनी नगरीमें प्रवेश किया। (१३) जिसके पादपीठमें सामन्त प्रणाम करते हैं ऐसा भरत स्वर्गेमें देवकी भाँति विजयसन्दरीके साथ विशाल राज्यका उपभोग करने लगा । (१४)
१. रइमालं-प्रत्य० । २. बहिगि-प्रत्य० । ३. रूवं-प्रत्य० ।
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