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२८६ पउमचरियं
[३७. २७सोऊण मिहिलसामी, कणगो सह साहणेण संपत्तो । सीहोयरमाईया, सुहडा भरहं समल्लीणा ॥ २७॥ अइविरिओ वि नरिन्दो, दूएण विमाणिएण आरुट्टो । भरहस्स सवडहुत्तो, विणिग्गओ निययनयराओ॥ २८ ॥ आगच्छामि लहु चिय, एत्तो लेहारियं विसज्जेउं । सो महिहरो नरिन्दो, भणिओ रामेण एगन्ते ॥ २९ ॥ भरहस्स जं सकज्जं, तं चिय अम्हाण साहणीयं तु । पच्छन्नएहि गन्तुं, अइविरिओ चेव हन्तवो ॥ ३० ॥ अच्छ सुहं बीसत्थो, महिहर ! पुत्तेहि तुज्झ सहिओ हं । वच्चामि तस्स पासं, तेण वि अणुमनिओ रामो ॥३१॥ एव भणिऊण तो सो, आरूढो रहवरं सह पियाए । महिहरसुएहि सुमयं, वच्चइ तो लक्खणसमग्गो ॥ ३२ ॥ नन्दावत्तपुरं ते, महिहरपुत्ता गया सह बलेणं । आवासिया य एत्तो, पउमो वि तहिं सुहासीणो ।। ३३ ।। तिण्हं पि समुल्लावो, अइविरियपराजए निसासमए । तो भणइ जणयतणया, राघव ! वयणं निसामेहि ॥ ३४ ॥ अइविरिओ विहु सुबइ, बहुसुहडसहस्सजणियपरिवारो। कह तं निणिज्ज भरहो, थेवेण बलेण संगामे ? ॥ ३५ ॥ चिन्तेह तं उवायं. अइविरिओ जेण जिप्पई पावो । एवं च परिगणेउं, अदीहसुत्तं कुणह कजं ॥ ३६ ॥ तो भणइ लच्छिनिलओ, किं दीणं एव जंपसे भद्दे !। पावं च अप्पविरियं, विणिज्जियं पेच्छसू अचिरा ॥ ३७ ॥ अह भणइ षउमनाहो, लक्खण ! निसुणेहि रणमुहे भरहो । अइविरिएण जइ जिओ, तो अम्हं किं व जीएणं ? ॥३८॥ अन्नं पि सुणसु लक्खण !, सत्तुग्घेणं तु जं कयं कजं । दाऊण य उक्खन्द, सिबिराओ साहणं हणइ ॥ ३९ ॥ सहसा निसासु गन्त, समयं चिय रुद्दभूइणा सिबिरं । यविहयविप्परद्धं, काऊण भडे विगयनीए ॥ ४० ॥ चउसट्ठिसहस्साई, तुरयाणं गयवराण सत्तसया । भुयबलविणिज्जिया ते, नीया भरहस्स पासम्मि ॥ ४१ ।। एवं कयसामत्था, रयणी गमिऊण तत्थ पडिबुद्धा । गन्तूण जिणहरं ते पयओ वन्दन्ति परितट्टा ॥ ४२ ॥
जाव जिणवन्दणं ते, कुणन्ति तावाऽऽगया भवणपाली । दिट्ठा असिवरहत्था, देवी दिवेण रूवेणं ॥ ४३ ॥ आये । (२७) अपमानित दूतके कारण क्रुद्ध अतिवीर्य राजा भी भरतका सामना करनेके लिए अपने नगरमेंसे निकला । (२८) 'जल्दी ही आता हूं'-ऐसा कहकर उसने पत्रवाहकको बिदा किया।
तब उस महीधर राजाने रामसे एकान्तमें कहा । (२९) भरतका जिससे भला हो वही हमें करना चाहिए, अतः प्रच्छन्न रूपसे जाकर अतिवीयकी हत्या करनी चाहिए । (३०) इसपर रामने कहा कि, हे महीधर ! तुम विश्वस्त होकर
आरामसे रहो। मैं तुम्हारे पुत्रोंके साथ उसके पास जाता हूं। उसने भी रामको अनुमति दी। (३१) ऐसा कहकर वे प्रिया सीताके साथ रथपर आरूढ़ हुए और लक्ष्मणसे युक्त वे महीधरके पुत्रोंके साथ चल पड़े । (३२) महीधरके पुत्र सेनाके साथ नन्दावर्तपुर की ओर गये और वहाँ पड़ाव डाला। राम भी वहाँ आरामसे बैठे । (३३) अतिवीर्यके पराजयके लिए रातके समय तीनोंमें परामर्श हुआ। उस समय सीताने कहा कि, हे राघव ! आप मेरा कहना सुनें । (३४) अतिवीर्य भी सुव्रत धारण करनेवाला और हजारों सुभटोंके परिवारसे युक्त है। उसे भरत युद्ध में थोड़ी-सी सेनासे कैसे जीतेगा ? (३५) । ऐसा उपाय सोचो जिससे वह पापी अतिवीर्य जीता जा सके। और इस प्रकार गणना करके शीघ्र कार्य करो । (३६) तब लक्ष्मणने कहा कि, भद्रे ! ऐसा दीन वचन क्यों कहती हो? तुम शीघ्र ही पापी और अल्पवीर्य उसे पराजित देखोगी। (३७) इसपर रामने कहा कि, लक्ष्मण ! सुनो! यदि युद्ध में भरत अतिवीर्य द्वारा पराजित हुआ तो हम जीकर क्या करेंगे? (३८) लक्ष्मण ! दूसरा भी शत्रुघ्नने जो कार्य किया है उसे सुनो। घेरा डालकर वह पड़ावमेंसे सेनाको मार रहा है। (३९) उसने रातके समय रुद्रभूतिके साथ सहसा जाकर शिबिरको क्षत-विक्षत और त्रस्त करके बहुत-से भटोंको मार डाला है। (४०) अपनी भुजाओंके सामर्थ्यसे चौसठ हजार घोड़े और सात सौ हाथी जीतकर वे भरतके पास लाये हैं। (४१)
ऐसा सामर्थ्य करनेवाले उन्होंने वहाँ रात बिताई। जगनेपर जिनमन्दिरमें जाकर प्रयत्नशील और परितुष्ट उन्होंने वन्दन किया। (४२) जब वे जिन भगवान्को वन्दनकर रहे थे कि भवनपाली आई। दिव्य रूपसे हाथमें उत्तम तलवार लिये हुई दिखाई दी। (४३) उसने कहा कि, हे राघव ! शीघ्र ही वशमें करके अंजलिबद्ध हाथवाले अतिवीर्यको चरणों में
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