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३७. अइवोरियनिक्खमणपव्वं अणिवारियविरिओ वि य. केसरिविरिओ य सीहरहमाई । एए साहणसहिया, समागया निययमाउलगा ॥ ११ ॥ • वसुसामि मारिदत्तो, अम्बट्टो पोटिलो य सोवीरो । मन्दरमाई एए, समागया तिबबलसहिया ॥ १२ ॥
एए अन्ने य बहू, दससु य अक्खोहिणीसु परिपुण्णा । सिग्धं च समणुपत्ता, तियसा विय भोगदुललिया ॥ १३ ॥ एएमु परिमिओ हं. भरह इच्छामि रणमुहे जेउं । महिहर ! लेहदरिसणे, आगन्तवं तए सिग्धं ॥ १४॥ परिवाइयम्मि लेहे, जाव च्चिय महिहरो न उल्लवइ । ताव च्चिय तं पुरिसं, वयणमिणं लक्खणो भणइ ॥ १५ ॥ अइविरियस्स किमत्थं, भरहस्स य जेण विग्गहो जाओ। एयं साहेहि फुड, भद्द ! महं कोउगं परमं ॥ १६ ॥ एवं च भणियमेते, वाउगई साहिउं अह पवत्तो । मह सामिएण दूओ, विसजिओ भरहरीयस्स ॥ १७॥ अह सो सुबुद्धिनामो, भरहं गन्तूण भणइ वयणाई । अइविरिएण सुणिज्जउ, दूओ हं पेसिओ तुज्झ ॥ १८ ॥ सो आणवेइ देवो, भरह ! तुम मज्झ कुणसु भिच्चत्तं । अहवा पुरिं अओझं, मोत्तूर्ण वच्चसु विदेसं ॥ १९ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, सत्तुग्धो रोसपूरियामरिसो । अह उढिओ तुरन्तो, जंपन्तो फरुसवयणाई ॥ २० ॥ न य तस्स भरहसामी, कुणई भिच्चत्तणं कुपुरिसस्स । किं केसरि भयभीओ, वच्चइ पासं सियालस्स ? ॥ २१ ॥ अहवा तस्साऽऽसन्नं, मरणं जेणेरिसाई भासेइ । पित्तजरेण व गहिओ, अणप्षवसगो धुवं जाओ॥ २२ ॥ दूएण वि पडिभणिओ, किं गजसि एत्थ अत्तणो गेहे ?। जाव च्चिय अइविरियं, न पेच्छसी रणमुहे रुटुं ॥ २३ ॥ एवं च भणियमेत्ते, घेत्तु चलणेसु कड्डिओ दूओ। सुहडेसु नयरमझे, नीओ च्चिय हम्ममाणो सो ॥ २४ ॥ सो तेहि विमाणेउं, मुक्को रयरेणुधूलियसंरीरो । गन्तूण सबमेयं, कहेइ निषगस्स सामिस्स ॥ २५ ॥ महया बलेण भरहो, विणिग्गओ तक्खणं पुरवरीओ । अइविरियस्स अभिमुहो, रणरसकण्डुच वहमाणो ॥२६॥
साथ उपस्थित हुए हैं। (११) वसुस्वामी, मारिदत्त, अम्बष्ठ, पोटिल, सौवीर तथा मन्दर आदि भी बड़ी सेना के साथ आये हैं। (१२) देवोंकी भाँति भोगोंमें आसक्त ऐसे अन्य बहुतसे दस अक्षौहिणी सेनाको परिपूर्ण करनेवाले राजा शीघ्र ही आ पहुँचे हैं। (१३) इनसे घिरा हुआ मैं युद्धभूमिमें भरतको जीतना चाहता हूँ, अतः हे राजन् ! पत्र देखते ही तुम्हें शीघ्र आना चाहिये । (१४)
पत्र पढ़ने के बाद अभी राजा नहीं बोलता है तबतक तो लक्ष्मणने उस पुरुषको यह वचन कहा कि, हे भद्र! अतिवीर्यका भरतके साथ किसलिए विग्रह हुआ, यह तुम स्पष्ट रूपसे कहो। मुझे बड़ा कुतूहल हो रहा है । (१६) ऐसा कहने पर वायुगति कहने लगा कि मेरे स्वामीने भरतराजके पास दूत भेजा था । (१७) सुबुद्धि नामके उस दूतने भरतके पास जाकर जो वचन कहे वे आप सुनें। अतिवीर्यने मुभा दूतको आपके पास भेजा है। (१८) उस देव अतिवीयने आज्ञा दी है कि, भरत ! तुम मेरी नौकरी करो अथवा अयोध्या नगरीका परित्याग करके विदेशमें चले जाओ। (१९) यह वचन सुनकर गुस्सेसे भरा हुआ शत्रुघ्न कठोर वचन कहता हुआ एकदम उठ खड़ा हुआ। (२०) भरत स्वामी उस कुपुरुषको नौकरी नहीं बजाएंगे। क्या भयसे डरकर सिंह शृगालके पास जाता है ? (२१) अथवा जिसने ऐसा कहा है उसका मरण समीप है। अवश्य ही वह पित्तज्वरसे गृहीत व्यक्तिकी भाँति भूताविष्ट हो गया है। (२२) दूतने भी जवाब दिया कि जबतक रुष्ट अतिवीर्यको युद्धभूमिमें नहीं देखते तभी तक तुम यहाँ अपने घरमें क्यों गरजते हो ? (२३) इस प्रकार कहनेपर पैरोंको पकड़कर बाहर निकाल दिया गया और सुभटों द्वारा मारा जाता वह नगरके बीच में लाया गया । (२४) धूलकी रजसे धूसरित शरीरवाले उसका अपमान करके उसे उन्होंने छोड़ दिया। जा करके अपने स्वामीसे उसने यह सब कुछ कहा । (२५)
युद्धके रसकी खुजली धारण करनेवाला भरत बड़े भारी सैन्यके साथ अतिवीर्यका सामना करनेके लिए उसी समय नगरीमेंसे निकल पड़ा । (२६) यह सुनकर मिथिलाका राजा सेनाके साथ आ पहुँचा। सिंहोदर आदि सुभट भरतके पास
१. परिमिओ परिवृत्त इत्यर्थः। २. रणकण्डु चेव वहमाणो–मु० ।
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