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________________ १८१ १९.४४] १९. वरुणपराजय-रावणरज्जविहाणं घेत्तण पुत्तसहियं, वरुणं आवासिओ वरुज्जाणे । लङ्काहिवो कयत्थो, तत्थाऽऽसीणो ससामन्तो ॥ २९ ॥ विद्धत्थं नयरवरं, रक्खससुहडेहि नायगविहूणं । गहियवरदवसारं, बन्दीजणसंकुलारावं ॥ ३० ॥ दिट्ट रक्खसवइणा, तं नयरं सबओ विलुप्पन्तं । सिग्धं दयालुएणं, निवारियं पवरपुरिसेणं ॥ ३१ ॥ मुक्को य वरुणराया, सुयसहिओ रावणं पणमिऊणं । हणुयस्स देइ कन्नं, सच्चमई नाम नामेणं ॥ ३२ ॥ वत्ते पाणिग्गहणे, वरुणं ठविऊण निययनयरम्मि । रणरसलद्धामरिसो, दहवयणो आगओ लङ्क ॥ ३३ ॥ हणुयस्स रावणेण वि, दिन्ना कन्ना गुणेहि संपुण्णा । धूया चन्दणहाए, अगङ्गकुसुम ति नामेणं ॥ ३४ ॥ काऊण करम्गहणं, तीएँ समं कण्णकुण्डले नयरे । भुञ्जइ भोगसमिद्धि, सिरिसेलो सुरकुमारो छ ॥ ३५ ॥ तत्तो नलेण दिन्ना, कन्ना हरिमालिणि त्ति नामेणं । हणुयस्स किन्नरपुरे, किन्नरकन्नासयं लद्धं ॥ ३६ ॥ किकिन्धिपुराहिवई, दुहियं ताराएँ तत्थ सुग्गीवो । नामेण पउमरागं, दटु चिन्तावरो जाओ ॥ ३७ ॥ तीए वरस्स कज्जे, विजाहरपत्थिवाण रूवाई । लिहिऊण आणियाई, कमेण बोला पलोएइ ॥ ३८ ।। एवं पलोयमाणी, पेच्छइ हणुयस्स सन्तियं रूवं । कुसुमाउहसमसरिसं, तं चेव अवट्ठियं हियए ॥ ३९ ॥ मुणिऊण तीऍ भावं, सुग्गीवो पवणनन्दणं सिग्छ । आणेइ सदूएणं, महया विभवेण साहीणं ॥ ४० ॥ हणुएण वरतण सा, परिणीया दाण-माण-विभवेहिं । सिरिपुरगओ महप्पा, भुञ्जइ भोगे रइगुणड्ढे ॥ ४१ ॥ एवं सहस्समेगं, जायं हणुयस्स पवरमहिलाणं । रूव गुणसालिणीणं, संपुण्णमियङ्कवयणाणं ॥ ४२ ॥ अह रावणो विरजं, कुणइ तिखण्डाहियो विजियसत्तू । सिरि-कित्ति-लच्छिनिलओ, बिज्जाहरनमियषयवीढो ॥ ४३ ॥ चकं सुदरिसणं तं, दि मज्झण्हकालरविसरिसं । दण्डरयणं पि जायं, भयजणणं सबरायाणं ॥ ४४ ॥ और सामन्तोंके साथ वहीं ठहरा । (२९) नायकसे रहित, उत्तम द्रव्य एवं सारभूत पदार्थ जिसमेंसे ले लिये गये हैं और कदमें पकड़े गये लोगोंके रुदनसे व्याप्त ऐसे उस उत्तम नगरको राक्षस सुभटोंने विध्वस्त कर दिया । (३०) उस नगरका चारों ओरसे नाश देखकर दयालु और उत्तम पुरुप राक्षसपति रावणने शीघ्र ही उन्हें रोका। (३१) पुत्रों के साथ मुक्त वरुणराजाने रावणको प्रणाम करके सत्यवती नामकी कन्या हनुमानको दी। (३२) विवाह सम्पन्न होने पर वरुणको अपने नगरमें स्थापित कर युद्धरसके कारण जिसे क्रोध आया था ऐसा रावण लंकामें लौट आया । (३३) रावगने भी हनुमानको गुणोंसे परिपूर्ण चन्द्रनखाकी पुत्री अनंगकुसुमा नामकी कन्या दी। (३४) उसके साथ पाणिग्रहण करके कर्णकुण्डल नामके नगरमें हनुमान देवकुमारकी भाँति भोगसमृद्धिका उपभोग करने लगा। (३५) उसके बाद नलने हरिमालिनी नामकी कन्या दी। किन्नरपुरमें हनुमानने सौ किन्नरकन्याएँ प्राप्त की। (३६) किष्किन्धिपुरीका राजा सुग्रीव ताराकी पद्मरागा नामकी पुत्रीको देखकर चिन्तित हुआ। (३७) उसके वरके लिये विद्याधर राजाओंके चित्र अंकित करके लाये गये। वह कन्या उन्हें क्रमसे देखने लगी। (३८) इस प्रकार देखती हुई उसने कामदेवके जैसा हनुमानका रूप देखा और वह उसके हृदयमें स्थिर हो गया । (३९) उसके भावको जानकर सुग्रीवने दूत द्वारा शीघ्र ही हनुमान को बुलाया और बड़े भारी समारोहके साथ स्वाधीन की । (४०) दान, मान एवं वैभवके साथ हनुमानने उस सुन्दरीके साथ विवाह किया। वह श्रीपुर गया और रतिगुणसे युक्त भोग भोगने लगा । (४१) इस तरह हनुमानकी रूप एवं गुणसे सम्पन्न और पूर्णिमाके चन्द्र के समान सुन्दर मुखवाली एक हजार उत्तम स्त्रियाँ थीं। (४२) इधर तीन खण्डका स्वामी, श्री, कीर्ति एवं लक्ष्मीका धाम तथा विद्याधर जिसके पादपीठमें नमस्कार करते हैं ऐसा रावण शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके राज्य करने लगा । (४३) मध्याहकालीन सूर्यके समान तेजस्वी सुदशेदनचक्र तथा सब राजाओंको भयभीत करनेवाला दण्डरन भी पैदा हुआ । (४४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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