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पउमचरियं
हुयवहुट्ठियफुलिङ्गं । अइदारुणं
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अन्नोन्नसत्थभज्जन्त-संकुलं पवत्तं, जुज्झं विवडन्तवरसुहडं ॥ रह-गय-तुरङ्ग - जोहा, समरे जुज्झन्ति अभिमुहावडिया । सर-सत्ति-खग्ग- तोमर चक्काउह- मोग्गरकरग्गा ॥ रक्खसभडेहि भर्ग, वरुणबलं विवडिया ऽऽस-गय-जोहं । दट्टण पलायन्तं, जेलकन्तो अभिमुहीहूओ ॥ वरुणेण बलं भग्गं, ओसरियं पेच्छिऊण दहवयणो । अब्भिडइ रोसपसरिय-सरोहनिवहं विमुञ्चन्तो ॥ वरुणस्स रावणस्स य, वट्टन्ते दारुणे महाजुज्झे । ताव य वरुणसुएं हिं, गहिओ खरदूसणो समरे ॥ दूसणं सो, गहिओ मन्तीहि रावणो भणिओ । जुज्झन्तेण पहु ! तुमे, अवस्स मारिज्जए कुमरो ॥ काऊण संपहारं, समयं मन्तीहि रक्खसाहिवई । खरदूसणजीयत्थे, रणमज्झाओ समोसरिओ ॥ पायालपुरवरं सो, पत्तो मेलेइ सबसामन्ते । पल्हायवेयरस्स वि, सिग्घं पुरिसं विसज्जेइ ॥
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[ १६. २०
२० ॥
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पवनञ्जयस्य रणार्थ निस्सरणम्
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गन्तूण पणमिऊण य, पल्हायनिवस्स कहइ संबन्धं । रावण - वरुणाण रणं, दूसणगहणं जहावत्तं ॥ पडियागओ महप्पा, पायालपुरट्टिओ ससामन्तो । मेलेइ रक्खसवई, अहमवि वीसज्जिओ तुझं सोऊण वयणमेयं, पल्हाओ तक्खणे गमणसज्जो । पवणंजएण घरिओ, अच्छ तुमं ताव वीसत्थो ॥ सन्ते मए सामिय!, कीस तुमं कुणसि गमणआरम्भं ? । आलिङ्ग णफलमेयं, देमि अहं तुज्झ साहीणं ॥ भणिओ य नरवईणं बालो सि तुमं अदिट्ठसंगामो । अच्छसु पुत्रा ! घरगओ कीलन्तो निययकीलाए ॥
माताय ! एव जंप, बालो त्ति अहं अदिट्टरणकज्जो । किं वा मत्तवरगए, सीहंकिसोरो न घाएइ ? ॥ ३३ ॥
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अग्निमें से उठनेवाली चिनगारियोंसे व्याप्त तथा जिसमें अच्छे-अच्छे सुभट गिर रहे हैं ऐसा अत्यन्त भयंकर युद्ध होने लगा । (२०) बाण, शक्ति, तलवार, तोमर, चक्र, आयुध एवं मुद्रर हाथमें लिये हुए रथ, हाथी एवं घोड़ोंपर आरूढ़ योद्धा सामने जाकर युद्ध में जूझने लगे । (२१) गिरे हुए घोड़े, हाथी एवं योद्धाओंवाले वरुण सैन्यको भन्न और भागते देख जलका स्वामी वरुण सामने आया । (२२) वरुणके द्वारा सैन्यका भंग और पीछे हटना देख रावण रोषवश बाणोंका समूह छोड़ता हुआ आगे बढ़ा। (२३) जब वरुण और रावणका भयंकर महायुद्ध हो रहा था उस समय वरुणके पुत्रोंने खरदूषणको युद्धमें पकड़ लिया । (२४) दूषण पकड़ा गया है ऐसा देखकर मंत्रियोंने उस रावणसे कहा कि, हे प्रभो ! आप लड़ते रहेंगे तो कुमार अवश्य मारा जायगा । (२५) मंत्रियोंके साथ निश्चय करके राक्षसाधिपति रावण खरदूषण के जीवनके लिए रणमेंसे वापस लौटा । (२६)
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पातालपुर में वह आ पहुँचा और सब सामन्तों को इकट्ठा किया । प्रह्लाद खेचरको बुलाने के लिए भी शीघ्र एक आदमी भेजा । (२७) जा करके और प्रणाम करके प्रह्लाद राजासे उसने रावणका सम्बन्ध, रावण और वरुणका युद्ध तथा दूषणका पकड़ा जाना, जैसा हुआ था वैसा, कह सुनाया । (२८) बापस लौटा हुआ और सामन्तोंसे युक्त पातालपुर स्थित महात्मा राक्षसपति रावण आपसे मिलना चाहता है और इसीलिए मुझे भी आपके पास भेजा है । (२९) यह वचन सुनकर प्रह्लाद उसी समय जानेके लिए तैयार हुआ। यह देखकर पवनंजयने उसे रोका और कहा कि आप यहीं पर विश्वस्त होकर ठहरें । (३०) हे स्वामी ! मेरे रहते आप जानेकी तैयारी क्यों करते हैं? मैं आपके अधीन हूँ। मुझे यह आलिंगनका फल दें, अर्थात् मुझे आलिंगनपूर्वक जाने की अनुमति दें । (३१) राजाने कहा कि तुम अभी बच्चे हो। तुमने अबतक कभी लड़ाई नहीं देखी। पुत्र ! तुम अपना खेल खेलते हुए घर पर ही रहो। (३२) इसपर पवनंजयने कहा कि, हे तात ! आप ऐसा मत कहें कि मैं बच्चा हूँ और लड़ाई कभी नहीं देखी । क्या मदोन्मत्त हाथीको सिंहका बच्चा नहीं मारता । (३३) तब प्रह्लाद राजाने पवनवेगको १. वरुण इत्यर्थः ।
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