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१६. पवणंजयअंजणासुन्दरी भोगविद्दाणाहियारो
अणुइयसबङ्गी, कडिसुत्तय - कडयसिढिलियाभरणा । भारेण अंसुयस्स य, नाइ महन्तं परमखेयं ॥ ४ ॥ ववगयदप्पुच्छाहा, दुक्खं धारेइ अङ्गमङ्गाइँ । एमेव सुन्नहियया, पलवइ अन्नन्नवयणाई || ५ ॥ पासायतलत्था चिय, मोहं गच्छइ पुणो पुणो बाला । नवरं आसासिज्जइ, सोयलपवणेण फुसियङ्गी ॥ ६॥ मिउ-महुर-मम्मणाए, जंपइ वायाऍ दीणवयणाई । अइतणुओ वि महायस !, तुज्झऽवराहो मए न कओ ॥ ७ ॥ मुञ्चसु कोवारम्भं, पसियसु मा एव निगुरो होहि । पणिवइयवच्छला किल, होन्ति मणुस्सा महिलियाणं ॥ ८ ॥ एयाणि य अन्नाणि य, जंपन्ती तत्थ दीणवयणाइं । अह सा महिन्दतणया, गमेइ कालं चिय बहुत्तं ॥ ९॥ रावणस्य वरुणेन सह विरोध: -
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एत्थन्तरे विरोहो, नाओ अइदारुणो रणारम्भो । रावण- वरुणाण तओ, दोण्ह वि पुण दप्पियबलाणं ॥ लङ्काहिवेण दूओ, वरुणस्स य पेसिओ अइतुरन्तो । गन्तूण पणमिऊण य, कयासणो भणइ वयणाई ॥ विज्जाहराण सामी, वरुण ! तुमं भणइ रावणो रुट्ठो । कुणह पणामं व फुडं, अह ठाहि रणे सवडहुत्तो ॥ हसिऊण भइ वरुणो, दूयाहम ! को सि रावणो नामं ? । न य तस्स सिरपणामं, करेमि आणाषमाणं वा ॥ न यसो वेसमणो हैं, नेय नमो न य सहस्सकिरणो वा । जो दिवसत्थभीओ, कुणइ पणामं तुहं दीणो ॥ वरुणेणं उवलद्धो, दूओ नं एव फरुसवयणेहिं । तो रावणस्स गन्तुं, कहेइ सबं जहाभणियं ॥ सोऊण दूयवयणं, रुट्ठो लङ्काहिवो भणइ एवं । दिवत्थेहि विणा मऍ, अवस्स वरुणो जिणेयबो ॥ एत्थन्तरे पयट्टो, दसाणणो सयलबलकयाडोवो | संपत्तो वरुणपुरं, मणि-कणयविचित्तपायारं ॥ सोऊण रावणं सो समागयं पुत्तबलसमाउत्तो । रणपरिहत्थुच्छाहो, विणिग्गओ अभिमुहो वरुणो ॥ राईवपुण्डरीया, पुत्ता बत्तीसई सहस्साईं । सन्नद्ध-बद्ध कवया, अभिट्टा रक्खसभडाणं ॥ कटिसूत्र एवं कड़े आदि आभूषण जिसके ढीले पड़ गये थे ऐसी वह अपने वस्त्रके भारसे बहुत अधिक खेद अनुभव करती थी । (४) दर्प एवं उत्साह नष्ट होनेपर उसके प्रत्येक अंगमें पीड़ा हो रही थी । इस प्रकार शून्यहृदया वह असम्बद्ध वचन बोला करती थी । (५) प्रासादतलमें रहनेपर भी वह स्त्री बार-बार मूच्छित हो जाती थी। शीतल पवनका शरीरसे स्पर्श होनेपर वह बाद में आश्वस्त की जाती थी। (६) मृदु, मधुर एवं अव्यक्त बाणीसे वह दीनवचन कहती थी कि, हे महायश ! मैंने तुम्हारा स्वल्प भी अपराध नहीं किया है । (७) तुम क्रोधका त्याग करो और मुझपर अनुग्रह करो। ऐसे निष्ठुर मत बनो । प्रणिपात करनेवाली महिलाओंपर पुरुष तो प्रेम करते हैं । (८) ये तथा दूसरे दीनवचन कहती हुई उस महेन्द्रपुत्री अंजनाने बहुत काल बिताया । (९)
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इस बीच बलके कारण दर्पयुक्त रावण और वरुण दोनों में विरोध जगा और बादमें अतिभयंकर लड़ाई शुरू हुई । (१०) लंकाधिप रावणने शोघ्र ही वरुणके पास दूत भेजा । वहाँ जाकर और प्रणाम करके आसनपर बैठे हुए उसने कहा कि, विद्याधरोंके स्वामी हे वरुण ! रुष्ट रावणने तुमसे कहा है कि या तो तुम स्पष्ट रूपसे प्रणाम करो या युद्ध में समक्ष खड़े रहो । (११-१२) इसपर हँसकर वरुणने कहा कि, हे अधम दूत ! रावण कौन है ? न तो मैं उसे सिरसे प्रणाम करूँगा और न उसकी आज्ञा शिरोधार्य करूँगा । (१३) मैं न तो वह वैश्रमण हूँ, न यम और न सहस्रकिरण जो दिव्य शस्त्रोंसे भयभीत और दीन हो तुझे प्रणाम करूँगा । (१४) इस प्रकार कठोर वचनों द्वारा वरुण से उलहना पाये हुए दूतने रावणके पास जाकर जैसा वरुणने कहा था वह सब कह सुनाया । (१५) दूतका वचन सुनकर रुष्ट लंकेश रावणने ऐसा कहा कि दिव्यास्त्रोंके बिना ही मैं वरुणको अवश्य जीतूंगा । (१६) इसके पश्चात् सम्पूर्ण सेनासे युक्त हो दशाननने प्रयाण किया और मणि एवं सुवर्णसे विचित्र प्राकारबाले वरुणपुर के पास आ पहुँचा । (१७) रावणको आया जान युद्धके लिए परिपूर्ण उत्साहवाला वरुण पुत्र एवं सैन्यके साथ सामना करनेके लिए बाहर निकला । (१८) राजीव, पुण्डरीक आदि बत्तीस हजार पुत्र तैयार हो तथा कवच धारण करके राक्षस सुभटोंका सामना करने लगे । (१९) एक-दूसरेके तोड़े जाते शस्त्रोंसे संकुल,
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