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________________ १५३. १५. अंजणासुन्दरीवीवाहविहाणाहियारो परिहरह अन्नदिट्टो, निणसासणउज्जया सया होह । तो सबसङ्गमुक्का, कमेण मोक्ख पि पाविहह ॥ १४९ ।। रयणा रयणदीवे, जह कोइ नरो लएइ लाहत्थी । तह मणुयभवे गिण्हइ, धम्मत्थी नियमरयणाई ॥ १५० ॥ भणिओ धम्मरवेणं, मुणिणा लंकाहिवो जिणमयम्मि । एवं पि गिण्ह नियम, रयणद्दीवे नहा रयणं ॥ १५१ ॥ मुणिऊण वयणमेयं, दसाणणो भणइ केवलिं नमिउं । भयवं! असमत्थोऽहं, दुक्करचरिया मुणिवराणं ॥ १५२ ॥ नइ विहु सुरूववन्ता, परमहिला तो वि हं न पत्थेमि । नियया वि अप्पसण्णा, विलया एयं वयं मज्झ ॥ १५३ ॥ अह सो वि भाणुकण्णो, गेण्हइ नियमं मुणिं पणमिऊणं । अज्जप्पभिई य मए, जिणाभिसेओ करेयबो ॥ १५४ ॥ पूया य बहुवियप्पा, थुई य सूरुग्गमाइ कायबा । एसो अभिग्गहो मे, जावज्जीवं परिग्गहिओ ॥ १५५ ॥ अन्ने वि बहुवियप्पा, नियमा परिगेण्हिउं ससत्तीए । साई नमिऊण गया, निययट्ठाणाइँ सुरमणुया ॥ १५६ ॥ अह रावणो वि एत्तो, मुणिवसहं पणमिऊण उप्पइओ। सुरवरसमाणविभवो, लंकानयरिं समणुपत्तो ॥ १५७ ।। एवं तु कम्मस्स खओवएसे, गेण्हन्ति जीवा गुरुभासियत्थं ।। काऊण तिबं विमलं च धम्म, सिद्धालयं जन्ति विसुद्धभावा ॥ १५८ ॥ ॥ इय पउमचरिए अणन्तविरियधम्मकहणो नाम चउद्दसमो उद्देसओ समत्तो ।। १५. अंजणासुन्दरीवीवाहविहाणाहियारो तस्स मुणिस्स सयासे, हणुमन्त-बिहीसणेहि सम्मत्तं । गहियं अणन्नसरिसं, काऊण सुनिम्मलं हिययं ॥ १ ॥ तह वि य दूरेण ठियं, हणुमन्तस्स य विसुद्धसम्मत्तं । अन्नाणमारुएणं, न चलिज्जइ मन्दरो चेव ॥ २ ॥ होकर तुम क्रमसे मुक्ति प्राप्त कर सकोगे। (१४९) जिस तरह कोई लाभकी इच्छावाला पुरुष रत्नद्वीपमें जाने पर रत्न प्राप्त करता है उसी तरह मनुष्यभवमें धर्मार्थी पुरुष नियमरूपी रत्र ग्रहण करता है । (१५०) इसके पश्चात् धर्मरव मुनिने लंकानरेशसे कहा कि जिनधर्ममें रत्नद्वीपमें रत्नके जैसा एक भी नियम तुम धारण करो। (१५१) यह वचन सुनकर केवली भगवान्को नमस्कार करके रावणने कहा कि, हे भगवन् ! मुनिवरोंके दुष्कर आचारका पालन करने में मैं असमर्थ हूँ। (१५२) रूपवती होने पर भी दूसरेकी स्त्री को और मेरी भी अप्रसन्न हो तो मैं उसकी अभिलाषा नहीं करूंगा। यह मेरा व्रत है। (१५३) इसके अनन्तर उस भानुकर्णने भी मुनिको प्रणाम करके नियम धारण किया कि आजसे मैं जिनाभिषेक स्नात्रपूजा करूँगा । (१५४) सूर्योदय होने पर अनेक प्रकारकी पूजा और स्तुति करूँगा। यह अभिग्रह मैंने जीवनपर्यन्तके लिए धारण किया है। (१५५) अपनी अपनी शक्तिके अनुसार दूसरे भी अनेक प्रकारके नियम धारण करके तथा मुनिवरको नमस्कार करके देव एवं मनुष्य अपने-अपने स्थान पर गये । (१५६) इसके पश्चात् देवोंके समान वैभववाला रावण भी मुनिश्रेष्ठको प्रणाम करके ऊपर उड़ा और लंका नगरीमें आ पहुँचा। (१५७) इस प्रकार कर्मके क्षयके लिए दिये गये उपदेशमें जीव गुरु द्वारा भाषित अर्थको ग्रहण करते हैं। विशुद्ध भाववाले वे तीव्र एवं विमल धर्मका आचरण करके सिद्धधाम मोक्षमें जाते हैं । (१५८) । पद्मचरितमें अनन्तवीर्यका धर्मोपदेश नामका चौदहवाँ उद्देश समाप्त हुआ। १५. अंजनासुन्दरीका विवाह-विधान हनुमान एवं विभीषणने अपना हृदय निर्मल बनाकर उन्हीं मुनिवर अनन्तवीर्यके पास दूसरे किसीसे जिसकी तुलना न की जा सके ऐसा अद्वितीय सम्यक्त्व अंगीकार किया। (१) फिर भी हनुमानका सम्यक्त्व अज्ञानरूपी हवासे २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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