SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - १४.१३३] १४. अणंतविरियधम्मकणाहियारो लहिऊण माणुसत्तं, जो धम्म जिणवराण सद्दहइ । सो वि हुन दीहकालं, परिहिण्डइ नरय-तिरिएसु ॥ ११९ ॥ जो पुण सम्मपिट्ठी, निणपूया-विणय-वन्दणाभिरओ । सो वि य कमेण पावइ, निवाणमणुत्तरं सोक्खं ॥ १२० ॥ निस्सकियाइएसुं, गुणेसु सहिया य सावया परमा। अभिगयजीवा-ऽजीवा, ते होन्ति महिड्डिया देवा ॥ १२१ ॥ जो कुणइ ससत्तीए, अहमुत्तम-मज्झिमं नरो धम्मं । सो लहइ तारिसाई, ठाणाई देवलोगम्मि ॥ १२२ ॥ अह भणइ मुणिवरिन्दो, एत्तो तव-संजमं बहुवियप्पं । नं काऊण मणूसा, अक्खयसोक्खं अणुहवन्ति ॥ १२३ ॥ थेवो थेवो वि वरं कायबो नाणसंगहो निययं । सरियाउ किं न पेच्छह, बिन्दहि समुद्दभूयाओ? ॥ १२४ ॥ एक पि अह मुहुत्नं, परिवज्जइ जो चउबिहाहारं । मासेण तस्स जायइ, उववासफलं तु सुरलोए ॥ १२५ ॥ दसवरिससहस्साऊ, भुञ्जइ जो अन्नदेवयासत्तो। पलिओवमकोडी पुण, होइ ठिई जिणवरतवेणं ॥ १२६ ।। तत्तो चुओ समाणो, मणुयभवे लहइ उत्तम भोगं । जह तावसदुहियाए, लद्धं रण्णे बसन्तीए ॥ १२७ ।। भुञ्जइ अणन्तरेणं, दोण्णि य वेलाउ नो निओगेणं । सो पावइ उववासा, अट्ठावीसं तु मासेणं ॥ १२८ ।। सो तस्स फलं विउलं, भुञ्जइ सुरजुवइनिवहमज्झगओ। सिरि-कित्ति-लच्छिनिलओ, दिवामलविरइयाभरणो॥ १२९ ।। अणुभविय विसयसोक्खं, आयाओ माणुसम्मि लोगम्मि । उत्तमवंसुब्भूओ, रमइ य रइसागरोगाढो ॥ १३० ॥ एवं मुहुत्तबुद्धी, उववासे छट्टमट्टमादीए । जो कुणइ जहाथाम, तस्स फलं तारिसं भणियं ॥ १३१ ॥ सो तस्स फलं विउलं, सुरलोए भुञ्जिउं सुचिरकालं । लहिऊण माणुसत्तं, बहुजणसयसामिओ होइ ।। १३२ ॥ रात्रिभोजनविरतिस्तत्फलं च: जो कुणइ अणत्थमियं, पुरिसो जिणभत्तिभावियमईओ। सो वरविमाणवासी, रमइ चिरं सुरवहूसहिओ ।। १३३ ॥ दीर्घकाल पर्यन्त परिभ्रमण नहीं करते । (११९) जो सम्यग्दृष्टि जिन पूजा, विनय एवं वन्दनादिमें अभिरत होता है वह भी क्रमशः अनुपम निर्वाणसुख प्राप्त करता है। (१२०) जिनप्रोक्त धर्ममें निःशंकता आदि गुणोंसे युक्त तथा जीव-अजीव आदि तत्त्वोंके जानकार आदि जो उत्तम श्रावक होते हैं वे बड़ी भारी ऋद्धिवाले देव होते हैं । (१२१) जो मनुष्य अपनी शक्तिके अनुसार अधम, मध्यम या उत्तम धर्मका आचरण करता है वह देवलोकमें वैसा ही स्थान प्राप्त करता है । (१२२) मुनियोंमें इन्द्र के समान उन अनन्तवीर्य प्रभुने आगे कहा कि यहाँ नानाविध तप-संयमका आचरण करके मनुष्य अक्षयसुख मोक्षका अनुभव करते हैं । (१२३) थोड़ा-थोड़ा भी सतत ज्ञानसंग्रह करना चाहिए। क्या तुम नहीं देखते हो कि बूँदोंको जमा करके ही नदियाँ समुद्र जैसी विशाल हो जाती हैं। (१२४) जो चारों प्रकारके आहारोंका एक मुहूतके लिए भी परित्याग करता है उसे एक मास पूर्ण होने पर स्वर्गलोकमें एक उपवाससे मिलनेवाला पुण्यफल मिलता है। (१२५) अन्य देवमें आसक्त जो मनुष्य दश हजार वर्ष तक स्वर्गमें सुख भोगता है, वही स्थिति जिनवरके द्वारा उपदिष्ट तपके आचरणसे कोटि पल्योपम जितनी हो जाती है। (१२६) वहाँसे च्युत होने पर जंगल में रहनेवाली तापसकी कन्याने जैसा उत्तम सुख प्राप्त किया वैसा वह मनुष्यभवमें उत्तम सुखोपभोग प्राप्त करता है। (१२७) जो नियमपूर्वक दो मुहूर्त अर्थात् प्रतिदिन दो बार हो भोजन करता है वह एक महीने में अट्ठाईस उपवासोंका फल प्राप्त करता है। (१२८) देवकन्याओंके समूहके मध्यमें स्थित, श्री, कीर्ति एवं लक्ष्मीका आवासरूप तथा दिव्य एवं निर्मल आभूषणोंसे अलंकृत वह उन उपवासोंका विपुल फल भोगता है। (१२९) वहाँ स्वर्गलोकमें विषयसुखका अनुभव करके मनुष्य लोकमें आया हुआ वह उत्तम कुलमें उत्पन्न हो तथा सुखरूपी सागर में निमग्न हो कोड़ा करता है । (१३०) इस प्रकार एक-एक मुहूर्तकी अभिवृद्धि करते-करते जो यथाशक्ति उपवास बेला या तेला करता है उसका वैसा ही फल कहा गया है। (१३१) देवलोकमें उसके विपुल फलका चिरकाल तक उपभोग करके और वहाँ से च्युत होनेपर मनुष्यजन्म प्राप्त करके वह सैकड़ों लोगोंका स्वामी बनता है। (१३२) १. अनस्तमितं रात्रिभोजनावरतिरित्यर्थः । Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy