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पउमचरियं
नह पेक्खिणाण गरुडो, राया सीहो य सब पसवाणं । तह माणुसो भवाणं, गुणेहि दूरं समुबहइ ॥ एको गुणो महन्तो, मणुयभवे जो न होइ अन्नत्तो । जं जाइ इओ मोक्खं, नीवो कम्मक्खयं काउं ॥ नह सागरम्मि नहं, रयणं न य पेच्छए गवेसन्तो । तह धम्मेण विरहिओ, जीवो न य लहइ मणुयभवं ॥ एवं केवलिविहियं, धम्मं सोऊण परमसद्धाए । अह भणइ भाणुकण्णो, अणन्तविरियं पणमिऊणं ॥ अज्ज वि न वीयरागो, भयवं ! भोगाभिलासिणो अहयं । उग्गं तवोविहाणं, असमत्थो समणधम्मम्मि ॥ तो भणइ अणन्तबलो, गिहत्थधम्मं सुणाहि एगमणो । काऊण नं विमुञ्चसि, कमेण संसारवासाओ ॥ सोयार निरायारो, दुविहो धम्मो जिणेहि उवइट्टो । समणाण निरायारो, होइ गिहत्थाण सायारो ॥ श्रावकधर्मः
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कहिओ ते पढमयरं, धम्मो साहूण महरिसीणं तु । एतो सावयधम्मं, सुणाहि सायारचारितं ॥ पञ्च य अणुवया, तिण्णेव गुणबयाइ भणियाई । सिक्खावयाणि एत्तो, चत्तारि जिणोवइद्वाणि ॥ थूलयरं पाणिवह, मूसावायं अदत्तदाणं च । परजुवईण निवित्ती, संतोसवयं च पञ्चमयं दिसिविदिसाण य नियमो, अणत्थदण्डस्स वज्जणं चेव । उवभोगपरीमाणं, तिण्णेव गुणबया एए ॥ सामाइयं च उनवासपोसहो अतिहिसं विभागो य । अन्ते समाहिमरणं, सिक्खासु वयाइँ चत्तारि ॥ राईभोयणविरई, महु-मंस-सुराविवज्जणं भणियं । पूया - सीलविहाणं, एसो धम्मो गिहत्थाणं ॥ एवं सावयधम्मं, काऊण नरा विसुद्धसम्मत्ता । मरिऊण जन्ति सम्गं, सोहम्माईसु कप्पेसु ॥ देवत्ताओ मणुया, होन्ति पुणो सुरवरा महिडीया । सत्तऽट्ठ भवे गन्तुं, सिद्धि पावन्ति धुयकम्मा ॥ कारण बहुत उन्नत समझा जाता है । (१०४) मनुष्यभवमें एक बहुत बड़ा गुण है जो अन्यत्र नहीं होता । वह यह है कि यहींसे कर्मोंका क्षय करके जीव मोक्षमें जाता है । (१०५) जैसे सागर में खोया हुआ रत्न खोजने पर भी हाथ नहीं लगता वैसे ही धर्म से रहित जीव मानवभव प्राप्त नहीं करता । (१०६)
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इस प्रकार केवली भगवान् द्वारा उपदिष्ट धर्मको परम श्रद्धापूर्वक सुनकर भानुकर्णने अनन्ववीर्य प्रभुको प्रणाम करके कहा कि, हे भगवन् ! भोगाभिलाषी मैं अब भी रागशून्य नहीं हुआ हूँ । श्रमणधर्ममें करने योग्य उम विधि करने में मैं असमर्थ हूँ । (१०७-१०८) इस पर अनन्तवीर्य प्रभुने कहा कि तुम ध्यान लगाकर गृहस्थधर्मके बारेमें सुनो, जिसका आचरण करके तुम संसारके वास से धीरे धीरे मुक्त हो सकोगे । (१०९) जिनवरोंने सागार और अनगार ऐसे दो तरहके धर्मका उपदेश दिया है। श्रमणोंके लिए अनगार-धर्म है, जबकि गृहस्थोंके लिए सागार-धर्म है । (११०) साधु-महर्षियोंका अनगार धर्म मैंने तुमसे पहले ही कहा । अब श्रावकके धर्म सागार चारित्रके बारेमें सुनो । (१११)
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जिनोपदिष्ट पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाऋत इस श्रावकधर्म में कहे गये हैं । (११२) स्थूलतर प्राणिवध, असत्यवचन, अदत्तादान (चोरी) और परस्त्री इनसे निवृत्ति तथा पाँचवाँ सन्तोषत्रत - ये पाँच अणुव्रत हैं । (११३) दिशा एवं विदिशाओंका नियमन, अनर्थदण्डका त्याग तथा उपभोगका परिमाण करना - ये ही तीन गुणत्रत हैं । (११४) सामायिक, उपवास - पोषध, अतिथिसंविभाग तथा अन्तमें समाधिमरण-ये चार शिक्षाव्रत हैं । (११५) रात्रिभोजनका त्याग मधु, मांस एवं मद्यका वर्जन तथा पूजा एवं शीलका आचरण - यह गृहस्थोंका धर्म है । (११६) ऐसे श्रावकधमका आचरण करके विशुद्ध सम्यक्त्ववाले मनुष्य मर करके सौधर्म आदि देवलोकों में उत्पन्न होते हैं । (११७) देवत्वसे च्युत होकर वे मनुष्य होते हैं, पुनः वे महर्द्धिक देव होते हैं । इस प्रकार सात-आठ जन्म धारण करके तथा कर्मोंका क्षय करके वे मोक्ष प्राप्त करते हैं । (११८) मनुष्यत्व प्राप्त करके जो जिनवरोंके धर्म पर श्रद्धा रखते हैं वे नरक एवं तिर्यच गतिमें
१. पक्षिणाम् । २. सागारः निरगारः ।
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