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________________ १२७ ११. ११९] ११. मरुयजण्णविद्धंसण-जणवयाणुरागाहियारो करयल[य]गिज्झमझो, सोहकडी हत्थित्थसरिसोरू । कुम्मवरचारुचरणो, बत्तीससुलक्खणसमग्गो ॥ १०६ ।। सिरिवच्छभूसियङ्गो, सबालङ्कारसुकयनेवच्छो । इन्दो व महिड्डीओ, दिट्ठो लोएण दहवयणो ॥१०७॥ तं मोत्तण पुरवर, अन्नं देसं गओ सह बलेणं । तत्थ वि नरिन्द-पुर-जणवएण अहिणन्दिओ मुइओ ॥ १०८ ॥ जं जं वच्चइ देसं, सो सो विय सग्गसन्निहो होइ । धण-धन्न-रयणपुण्णो, दुब्भिक्ख-भयाइपरिमुक्को ।। १०९ ॥ पुण्णेण परिग्गहिया, ते देसा पुबजम्मसुकएणं । सिरि-कित्ति-लच्छिनिलओ, दहवयणो जेसु संचरइ ॥ ११० ॥ प्राट्कालःववगयसिसिर-निदाहे, गङ्गातीरट्टियस्स रमणिज्जे । गज्जन्तमेहमुहलो, संपत्तो पाउसो कालो ॥ १११ ॥ धवलबलायाधयवड-विज्जुलयाकणयबन्धकच्छा य । इन्दाउहकयभूसा, झरन्तनवसलिलदाणोहा ॥ ११२ ॥ अञ्जणगिरिसच्छाया, घणहत्थी पाहुडं व सुरवइणा । संपेसिया पभूया, रक्खसनाहस्स अइगुरुया ॥ ११३ ॥ अन्धारियं समत्थं, गयणं रवियरपणट्ठगहचकं । तडयडसमुट्टियरवं, धारासरभिन्नभुवणयलं ॥ ११४ ॥ धारासरभिन्नङ्गो, कन्ता सरिऊण मुच्छिओ पहिओ। पुणरवि आससिओ च्चिय, तीए सुहसंगमासाए ॥ ११५ ॥ अहिणवकयम्बगन्धं, अग्याएऊण मूढमणहियया । जे अमुणियपरमत्था, भमन्ति तत्थेव पहियगणा ॥ ११६ ॥ ददुर-मऊर-जलहर-सद्दो वप्पीहयाण एयत्थं । पारद्धं पिव तालं, वारणलीलासहावेणं ॥ ११७॥ सुट्ट वि उक्कण्ठुलया, पहिया जलफलिहरुद्धपयमग्गा । कन्तासमागममणा, पंखारहिया विसूरेन्ति ॥ ११८ ॥ हरियतणसामलङ्गी, महिविलया सलिलवत्थपरिहाणी। वरकुडयकुसुमदन्ती, हसइ छ दसाणणागमणे ॥ ११९ ।। पैरवाल, बत्तीस सुलक्षणोंसे व्याप्त, श्रीवत्ससे शोभित शरीरवाले, सब अलंकारोंसे विभूषित तथा सुन्दर वस्त्र धारण किए हुए और इन्द्रकी भाँति अत्यन्त ऐश्वर्यसम्पन्न उस रावणको लोगोंने देखा । (१०५-७) उस नगरको छोड़कर वह सैन्यके साथ दूसरे देशमें गया। वहाँ पर भी राजा तथा नगरनिवासी लोगोंने प्रसन्नतापूर्वक उसका अभिवादन किया । (१०८) वह जिस जिस देश में जाता था वह धन, धान्य एवं रत्नोंसे परिपूर्ण तथा दुर्मिक्ष, भय आदि से मुक्त हो स्वर्गतुल्य बन जाता था। (१०९) श्री, कीर्ति एवं लक्ष्मीका आवास रूप रावण जिन जिन देशों में संचार करता था वे देश, पूर्व जन्ममें किये हुए पुण्यसे, अपने अधीन कर लेता था। (११०) शीतकाल एवं ग्रीष्म ऋतुके बीतनेपर जब रावण गंगाके रमणीय तीर पर स्थित था तब गरजते हुए बादलोंके कारण मुखरित वर्षाकाल आया। (१११) सफेद बगुले रूपी ध्बज-पताकाओंसे युक्त, विद्युल्लता रूपी सोनेकी कटिमेखला पहने हुए, इन्द्रधनुषसे शोभित, नवीन पानी रूपी मदका समूह जिसमें से कर रहा है ऐसे तथा अंजनगिरिके समान कान्तिवाले और अत्यन्त भारी बादलरूपी बहुत-से हाथी सुरपतिने भेंटके तौरपर मानो राक्षसनाथ रावणके पास भेजे। (११९-३) बादलोंके छा जानेसे सारा आकाश अंधकारसे व्याप्त हो गया। सूर्यकी किरणें तथा प्रह-नक्षत्रोंके समूह ओझल हो गये। बिजलीकी कौंधसे तड़तड़की आवाज़ आती थी और धारा रूपी बाणसे पृथ्वीकी सतह छिन्न-भिन्न हो रही थी। (११४) वर्षाकी धारा रूपी बाणसे व्यथित शरीरवाला पथिक पुरुष अपनी पत्नीका स्मरण करके मूर्च्छित हो गया। बाद में उसके साथ सुख-समागमकी आशासे किसी तरह उसने ढाढस बाँधा । (११५) कदम्ब वृक्षकी ताजी ताजी गन्ध सूंघकर मन एवं हृदयसे मुढ जो पथिकगण वास्तविक परिस्थिति नहीं जानते वे वहीं कदम्बके आसपास चक्कर लगाते हैं। (११६) मिटीके ढहोंके ऊपर एकत्रित होकर हाथीकी लीला हो रही हो उसमें मेंढक, मोर और बादलोंके शब्द मानो ताल दे रहे थे। (१९७) कान्ताके साथ समागमके लिए जिन पथिकोंका मन अत्यन्त बेताब है वे जलभरी खाईसे गमन मार्ग रुद्ध होनेपर पंख न होनेके कारण खेद प्रकट करते थे। (११८) दशाननके आगमनपर हरी हरी घासके कारण श्याम अंगवाली, पानी रूपी वस्त्र पहने हुई, कुटज वृक्षके पुष्पोंके समान शुभ्र दाँतोंवाली तथा लज्जाशीला पृथ्वी रूपी ललना मानो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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