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१०.७२]
१०. दहमुहसुग्गीवपत्थाण-सहस्सकिरणअणरण्णपव्वज्जाविहाणं रक्खसभडेहि भग्गं, निययं दठूण साहणं समरे । रुट्टो सहस्सकिरणो, आउहनिवहेण पजलिओ ॥ ५८ ॥ वाहेइ रहवरं सो. रक्खससेन्नस्स अहिमुहं तुरीओ । मुञ्चन्तो सरवरिसं, धारानिवहं व नवमेहो ॥ ५९ ॥ गरुयपहाराभिहयं. निवडन्तगइन्द-तुरय-पाइकं । विज्जाहराण सेन्नं, जोयणमेत्तं समोसरियं ॥ ६ ॥ पडिहारेणऽक्खाए, निययबले समरदूमियसरीरो । आरूढो दहवयणो, भुवणालङ्कारमत्तगयं ॥ ६१ ॥ एवं दटळूण रणे. दसाणणं आउहाणि मुञ्चन्तं । बहुसमरलद्धविजओ, सहस्सकिरणो ठिओ पुरओ ॥ ६२ ॥ दोण्हं पि समावडिए, जुज्झे वहुसत्थघायसंपाए । विरहो सहस्सकिरणो, को खणद्धेण संगामे ॥ ६३ ॥ मोत्तण रहवरं सो, आरूढो गयवरं गिरिसरिच्छं । मुश्चइ सुनिसियबाणे, दहमुहसन्नहणभेयकरे ।। ६४ ॥ सिक्खाहि ताव रावण !, धणुवेयं निययपुरवरिं गन्तु। ताहे मए समाणं, जुज्झसु ता अवहिओ होउं ॥ ६५ ॥ रत्तारुणसबङ्गो, दहवयणो कड्डिऊण सरनिवहं । मुञ्चइ चलग्गहत्थो, सहस्सकिरणस्स देहम्मि ॥ ६६ ॥ नाव य सहस्सकिरणो, पहारवसवेम्भलो जणियमोहो । ताव य रक्खसवइणा, गहिओ रणमज्झयारम्मि ॥ ६७ ॥ अह बन्धिऊण नीओ, निययावासं सविब्भममणेहिं । विज्जाहरेहिं दिट्ठो, सहस्सकिरणो महासत्तो ।। ६८ ॥ ताव च्चिय दिवसयरो, अत्थाओ विगयकिरणसंघाओ । गयणं समोत्थरन्तो, बहलतमो बडिओ सहसा ॥ ६९ ॥ ससियरजोण्हाधवले. रणभग्गुच्छाहजणियकम्मन्ते । अक्खयदेहाणं चिय, निदाएँ सुहं गया रयणी ॥ ७० ॥ अह उग्गमम्मि सूर, सामन्तत्थाणिमज्झयारत्थो । अच्छइ लङ्काहिवई, ताव च्चिय मुणिवरो पत्तो ॥ ७१ ॥ दळूण समणसीह, सिग्धं अब्भुट्टिओ कयपणामो । दिन्नासणोबविट्ठो, साहू तवलच्छिसंपन्नो ॥ ७२ ॥
एवं गोत्र कहते हुए आमने-सामने युद्ध करने लगे। (५७) युद्धभूमिमें राक्षस योद्धाओं द्वारा अपने सैन्यका भंग देख कर रुष्ट सहस्रकिरण आयुधसमूहके साथ चमकने लगा। (५८) वह फौरन ही अपना उत्तम रथ राक्षससैन्यके सम्मुख लिवाले गया और नये बादलोंकी भाँति मूसलधार बाणवर्षा करने लगा । (५९) भीषण प्रहारोंसे पीटो गई और इसीलिए गिरती पड़ती बिद्याधरोंकी गज, अश्व एवं पैदल सेना एक योजन तक पीछे हटी । (६०) प्रतिहारीके द्वारा अपने सैन्यकी कथा सुनकर युद्धसे सन्तप्त शरीरवाला रावण भुवनालंकार नामके मदोन्मत्त हाथी पर सवार हुआ। (६१) इस प्रकार रणमें आयुध छोड़ते हुए रावणको देखकर अनेक युद्धोंमें विजय प्राप्त करनेवाला सहस्रकिरण उसके सम्मुख आया। (६२) अनेकविध शस्त्रोंका घात-प्रतिघात जिसमें किया जाता है ऐसे युद्ध में वे दोनों एक दूसरेके सम्मुख उपस्थित हुए। उस संग्राममें आधे क्षणमें ही सहस्रकिरण रथसे च्युत कर दिया गया । (६३) रथको छोड़कर वह पर्वत जैसे उत्तम हाथी पर सवार हुआ और रावणके कवचका भेद करनेवाले तीक्ष्ण बाण छोड़ने लगा । (६४) उसने कहा कि, हे रावण! अपने नगरमें जाकर तुम धनुर्वेद सीख आओ। फिर मेरे साथ सावधान होकर युद्ध करना । (६५) यह सुनकर रक्तके समान लाल शरीरवाला रावण अपने चपल हाथोंसे सहस्रकिरणके शरीर पर खींचकर बाणसमूह फेंकने लगा। (६६) प्रहारसे विह्वल सहस्रकिरण ज्यों ही बेहोश हुआ, राक्षसपति रावणने उसे युद्धक्षेत्र में ही पकड़ लिया। (६७) उसे बाँधकर वह अपने आवासमें लाया। वहाँ विस्मययुक्त मनवाले विद्याधरोंने महासत्त्वशाली सहस्रकिरणको देखा । (६८) उसी समय किरणसमूहसे रहित सूर्य अस्त हुआ और आकाशको आच्छादित करनेवाला गहरा अन्धकार एक दम बढ़ गया। (६९) चन्द्रमाको चाँदनीसे सफेद तथा युद्धके बन्द हो जानेसे तज्जन्य कर्मका जिसमें अन्त आया है ऐसी रात अक्षत शरीरवालोंने सुखपूर्वक सोकर व्यतीत की । (७०) सहस्रकिरण और अनरण्य द्वारा प्रव्रज्या-अंगीकार
इधर सूर्योदय होनेपर लंकाधिपति रावण जब सामन्तसमूहके बीच स्थित था तब एक मुनिवर वहाँ आ पहुँचे। (७१) श्रमणों में सिंहके समान उस मुनिवरको देखकर वह एकदम खड़ा हो गया। वन्दन किये जानेके पश्चात् दिये हुए आसनपर
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