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१०. १५]
१०. दहमुहसुग्गीवपत्थाण-सहस्स किरणअणरणपव्वज्जाविहाणं
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जल सिहखे यरसुया, नोइपुरे सिरिमईऍ देवीए । ताराहिवसरिसमुही, तारा नामेण वरकन्ना ॥ चक्कङ्कवेयरमुओ, पेच्छइ सो अन्नया परिभमन्तो । नामेण साहसगई, दुट्ठो अहिलसइ परिणेउं ॥ ३ ॥ मयणसरसल्लियङ्गो, चिन्तिन्तो तीऍ दंसणोवायं । पेसेइ निययदूए, उवरोवरि मग्गणट्टाए || ४ ॥ सुग्गीवो विकइवरो, तं कन्नं मग्गिऊण आढत्तो । चिन्तेइ जमलहियओ, नलणसिहो कस्स देमि ? त्ति ॥ ५ ॥ सिण मुणिवरो, विणयं काऊण पुच्छिओ भयवं ! । कस्सेसा वरकन्ना, होही महिला ? परिकहेहि ॥ अह भणइ मुणिवरिन्दो, चक्कङ्कसुओ न चेव परमाऊ । होही चिराउसो पुण, सुग्गीवो वाणराहिवई ॥ दीवं वसहं च गयं परमनिमित्ताइँ विन्नसेऊणं । सुग्गीवस्स वरतणु दत्ता कयमङ्गलविहाणा ॥ परिणेऊण सुतारा, सुग्गीवो उत्तमं विसयसोक्खं । भुञ्जइ पसन्न हियओ, इन्दो इव देवलोम्मि ॥ एवं कमेण तीए, पुत्ता जाया सुरूवलायण्णा । पढमो य अङ्गयभडो, बीओ य भवे जयाणन्दो ॥ न मुइ साहसगई, अणुबन्धं तीऍ कारणट्टाए । चिन्तेइ उवायसए, दुक्खियमणसो विगयलज्जो ॥ कइया ऽरविन्दसरिसं, तीऍ मुहं विप्फुरन्तबिम्बो । चुम्बीहामि कयत्थो ? पाडलकुसुमं महुयरो च ॥ चिन्तावरेण एवं, संभरिया तत्थ अइबला विज्जा । रूवपरिवत्तणकरी, साहेइ हिमालयगुहाए ॥ रावणदिग्विजयः
एत्थन्तरे पुरीए, दहवयो निरंगओ बलुम्मत्तो । दीवन्तरवत्थबे, निणइ तओ संझायार सुवेलो, कञ्चणपुण्णो अओहणो चेव । पल्हाय-हंसदीवाइया उ सबे
खेरे सबे ॥ कया सवसा ॥
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१४ ॥ १५ ॥
ज्योतिपुरमें ज्वलनशिख नामक खेचरकी श्रीमती नामकी पत्नीसे उत्पन्न और चन्द्रके समान मुखवाली तारा नामकी एक सुन्दर कन्या थी । (२) चक्रांक विद्याधरके साहसगति नामके दुष्ट पुत्रने परिभ्रमण करते हुए एक बार उसे देखा । उसके साथ शादी करनेकी उसे अभिलाषा हुई । (३) मदनके बाणोंसे विद्ध शरीरवाला वह उसके दर्शनका उपाय सोचता हुआ उसकी मँगनीके लिये बार-बार अपना दूत भेजने लगा । (४) इधर कपिवर सुग्रीव भी उस कन्याकी मँगनी करने लगा । इस पर दुविधा में पड़ा हुआ ज्वलनशिख चिन्तामें पड़ गया कि मैं किसे दूँ ? (५) ज्वलनशिखने एक मुनि विनयपूर्वक पूछा कि, हे भगवन् ! यह मेरी सुन्दर पुत्री किसकी पत्नी बनेगी, यह आप मुझसे कहें ? (६) इस पर उस मुनिवरने कहा कि चक्रांक विद्याधरके पुत्रकी आयु अधिक नहीं है, जबकि वानराधिपति सुग्रीव चिरायु होगा । (७) दीपक, वृषभ और हाथी आदि उत्तम निमित्तों को देखकर वैवाहिक मंगलविधि द्वारा उसने वह सुन्दर कन्या सुग्रीवको दी । (८) सुताराके साथ शादी करके प्रसन्न हृदयवाला सुग्रीव देवलोकमें इन्द्रकी भाँति उत्तम विषय-सुखोंका उपभोग करने लगा । (९) इस प्रकार उससे क्रमशः सुरूप एवं लावण्ययुक्त पुत्र हुए। उनमें पहला अंगभट था और दूसरा जयानन्द था । (१०)
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इधर दुःखित मनवाले और निर्लज्ज साहसगतिने पीछा न छोड़ा। उसकी प्राप्तिके लिए वह सैकड़ों उपाय सोचने लगा । (११) 'कब मैं उसके अरविन्दके समान मुखका तथा चपल और बिम्बके समान लाल-लाल होंठका, गुलाबके फूलका भौंरा जिस तरह चुम्बन करता है उस तरह, चुम्बन करके कृतार्थ होऊँगा' इस प्रकार चिन्ता करते हुए उ रूपपरिवर्तनकरी नामकी अत्यन्त शक्तिशाली विद्याका स्मरण हो आया | हिमाचलकी गुफा में जाकर वह उसकी साधना करने लगा | (१२-१३)
इस बीच बलसे उन्मत्त दशवदन अपनी नगरीमेंसे आक्रमणके लिए बाहर निकला और दूसरे द्वीपोंमें रहनेवाले सब खेचरोंको जीत लिया । (१४) सन्ध्याकार, सुवेल, कांचनपूर्ण, अयोघन, प्रह्लाद एवं हंस द्वीप आदि सब उसने अपने वशमें कर लिए। (१५) इस प्रकार विजय करते हुए उस सुन्दर मनवाले दशवदनने बहुतसे सामन्त और बड़ी भारी १. तुट्ठो - प्रत्य० ।
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