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८.१२३]
८. दहमुहपुरिपवेसा भोत्तूण एगदिवस, रज संवच्छरं हवइ पावं । दोरस्स कारण?, नासन्ति मणी अविन्नाणा ॥ १०८ ॥ तं मुयस रागदोसं. निययं दावेहि बन्धवसिणेहं । मा विसयभोगतिसिओ, पहरसु नियएसु अङ्गसु ॥ १०९ ॥ सोऊण वयणमेयं, दसाणणो भणइ अइबलुम्मत्तो । धम्मसवणस्स कालो, वेसमण ! न होइ संगामे ॥ ११० ॥ खग्गस्स हवसु मग्गे, किंवा बहुएहि भासियहिं ! । अहवा कुणसु पणाम, न य सरणं अत्थि तुज्झऽन्नं ।। १११ ।। भणइ तओ वेसमणो, दसाणणं रणमुहे सवडहुत्तं । आसन्नमरणभावो, वट्टसि एयाइँ जंपन्तो ॥ ११२ ॥ बन्धवनेहेण मए, निवारिओ जं सि महुरवयणेहिं । तं मुणसि अतीगाढं, भीओ जक्खाहिवो मज्झं ॥ ११३ ॥ नइ ताव बलसमुत्थं, अत्थि तुमं कढिणदप्पमाहप्पं । ता पहरसु पढमयरं, दहमुह ! मा णे चिरावेहि ॥ ११४ ॥ अह भणइ रक्खसिन्दो. संगामे पढमरिउभडस्सुवरिं । सबाउहकयसङ्गा, एत्तिय न वहन्ति मे हत्था ॥ ११५ ॥ रुट्टो जक्खाहिवई, तस्सुवरिं वरिसिओ सरसएहिं । किरणपसरन्तनिवहो, नज्जइ मज्झट्टिओ सूरो ॥ ११६ ॥ वेसमणकरविमुक्कं, सरनिवहं अद्धचन्दबाणेहिं । छिन्देऊण दहमुहो, गयणे सरमण्डवं कुणइ ॥ ११७ ॥ आयण्णपूरिएहि, सुणिसियबाणेहि धणुविमुक्केहिं । चावं दुहा विरिकं, रहो य संचुण्णिओ नवरं ॥ ११८ ॥ अन्नं रहं विलग्गो, चावं घेत्तण सरवरसएहिं । उक्कत्तइ दहवयणो, कवयं धणयस्स देहत्थं ॥ ११९ ॥ अह रावणेण समरे, जमदण्डसमेण भिण्डिमालेण । वच्छत्थलम्मि पहओ धणओ मुच्छं समणुपत्तो ॥ १२० ॥ दट ठूण तं विसन्नं, जक्खबले कलुणकन्दियपलावो । उप्पन्नो च्चिय सहसा, परितोसो रक्खसभडाणं ॥ १२१ ॥ ताव य भिच्चेहि रणे, वेसमणो गेण्हिऊण हक्खुतो । सपुरिससेज्जारूढो, जक्खपुरं पाविओ सिग्धं ॥ १२२ ॥
दहवयणो वि य समरे, भग्गं नाऊण जक्खसामन्तं । जयसहतूरकलयलरवेण अहिणन्दिओ सहसा ॥ १२३ ॥ राज्यके उपभोगके लिये सालभर तक पाप करते हैं और इस तरह, मानो डोरीके लिए मणिका नाश करते हैं। (१०८) अतः राग-द्वेषका त्याग कर तुम अपना बन्धुस्नेह दिखलाओ और विषयभोगमें तृषित तुम अपने ही अंगों पर प्रहार मत करो। (१०९) वैश्रमणकां ऐसा कथन सुनकर अपने अतिबलसे उन्मत्त रावणने कहा कि हे वैश्रमण ! संग्राममें धर्म सुननेका समय नहीं होता । (११०) बहुत कहनेसे क्या? या तो तुम मेरी तलवारकी धारमें आओ, अथवा मुझे प्रणाम करो। तुम्हारे लिए दूसरी कोई शरण नहीं है। (१११) इस पर वैश्रमणने रावणसे कहा कि तुम्हारे ऐसे कथनसे मालूम होता है कि रणमें तुम्हारा मरण आसन्न ही है। (११२) बन्धुस्नेहवश मधुर शब्दोंसे मैंने तुम्हें रोका, इससे तुम ऐसा मानने लगे हो कि यह यक्षराज मुझसे बहुत ही डर गया है। (११३) यदि तुम्हें अपने बलसे उत्पन्न बड़ा भारी घमण्ड हो आया है तो, हे दशमुख! तुम सर्वप्रथम प्रहार करो, देर मत लगाओ। (११४) इस पर राक्षसेन्द्र रावणने कहा कि युद्धमें शत्रु-सुभटके ऊपर सर्वप्रथम, सभी तरहके आयुधोंके साथ जिसने दोस्ती की है ऐसे मेरे हाथ नहीं चलते । (११५) ऐसा सुनकर रुष्ट यक्षाधिपति वैश्रमण उस पर सैकड़ों बाणोंकी वर्षा करने लगा। उस समय वह आकाशके बीच अवस्थित तथा चारो ओर फैलनेवाली किरणोंके समूहसे युक्त सूर्य जैसा प्रतीत होता था । (११६) वैश्रमणके द्वारा छोड़े गये बाणोंके समूहको अर्धचन्द्र-बाणोंके द्वारा छिन्न-भिन्न करके रावणने आकाशमें बाणोंका एक मण्डप-सा तान दिया। (११७) कान तक खेंचे हुए धनुषसे छोड़े गये अत्यन्त तीक्ष्ण बाणोंसे-वैश्रमणने रावणके धनुषके दो टुकड़े कर दिये तथा रथ भी चूर्णविचूर्ण कर दिया । (११८) दूसरे रथ पर चढ़कर तथा धनुष ग्रहण करके रावणने सैकड़ों बाणोंसे धनदके शरीर पर पहने हुए कवचको तोड़ डाला। (११९) इसके पश्चात् रावणने युद्ध में यमके दण्डके जैसे भिन्दिपाल नामक शस्त्रसे बक्षस्थल पर प्रहार किया, जिससे धनद मूर्छित हो गया। (१२०) उसे बेहोश देखकर सहसा यक्षसैन्यमें करुण क्रन्दनकी आवाज उत्पन्न हुई और राक्षस योद्धाओंमें आनन्द छा गया। (१२१) इसके बाद वैश्रमणको उठाकर भृत्य युद्धभूमिसे ले गये। पुरुषोंसे युक्त शय्या पर आरूढ़ वह जल्दी ही यक्षपुरमें पहुँचा दिया गया । (१२२) युद्ध में यक्षसामन्त भग्न हुआ है ऐसा जानकर 'जय' शब्द तथा बाणोंकी कलकल ध्वनिसे दशवदनका सहसा अभिनन्दन किया गया। (१२३)
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