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पउमचरियं
[६. २२२० अह ते चवलकुमारा, जं तेण निवारिया सुकेसेणं । मा जाह दक्खिणदिसिं, अन्नत्तो रमह वीसत्था ॥ २२२ ॥ परिपुच्छिओ नरिन्दो, विणयं काऊण तेहि परमत्थं । परिकहइ जहावत्तं, लङ्कापुरिमाइयं सबं ॥ २२३ ॥ नयरीऍ तीऍ सामी, निग्धाओ नाम दाणवो वसइ । अगणियपडिवक्खभओ, ठविओ सो असणिवेगेणं ॥ २२४ ॥ अम्हं परंपराए, सा नयरी आगया गुणसमिद्धा । तस्स भएण विमुक्का, पुत्तय! अञ्चन्तरमणिज्जा ॥ २२५ ॥ जन्ताणि तेण निययं, सबत्तो विरइया पावेणं । मारन्ति जाइँ पुत्तय, लोयं भीमेण रूवेण ॥ २२६ ॥ सुणिऊण वयणमेयं, रुट्टा विज्जासु लद्धमाहप्पा । अह ते कुमारसीहा, पायालपुराउ निष्फिडिया ॥ २२७ ॥ चउरङ्गबलसमग्गा, सिग्छ उप्पइय अम्बरतलेणं । हन्तूण जन्तनिवहं, लङ्कानयरी समणुपत्ता ।। २२८ ॥ सोऊण रक्खसभडे, निग्घाओ निग्गओ सेवडहुत्तो । असि-कणय-किरणपउरो, दिवायरो चेव पन्जलिओ ॥ २२९ ॥ गयमेहकण्णपवणो, मयबिन्दुझरन्तसलिलसंघाओ । असिविजुलाउलपरो, सहसा रणपाउसो जाओ ॥ २३० ॥ अन्नोन्नरहसपसरिय-फलउक्कासन्निहेहि सत्थेहिं । दोसु वि बलेसु सुहडा, जुज्झन्ति विमुक्कजीयासा ॥ २३१॥ निग्घाओ विहु माली, आवडिया दो वि रणमुहे सुहडा । मुच्चन्ताऽऽउहनिवहं, असुरा इव दप्पिया सूरा ।। २३२ ॥ एयारिसम्मि जुज्झे बट्टन्ते उभयलोगसंघट्टे । मालिभडेण य पहओ, निग्धाओ पाविओ मरणं ॥ २३३ ॥ नाऊण निययसेन्न, निग्घायं मारियं समरमज्झे । भग्गं भयाउलमणं, जह वेयडे समणुपत्तं ॥ २३४ ॥ तो पडह-मेरि-झल्लरि-जयसद्दग्घुट्टमङ्गलरवेणं । लङ्कापुरि पविट्ठो, माली सह बन्धुवग्गेणं ॥ २३५॥ पिइ-माइ-सयणसहिओ, परियणपसरन्तभोगवित्थारं । निकण्टयमणुकूलं, भुञ्जइ रजं गुणसमिद्धं ॥ २३६ ॥
न्यत्र विश्वस्त होकर खेल सकते हो'-इस प्रकार सुकेश द्वारा वे चंचलकुमार रोके गये। ( २२२) इस पर उन्होंने विनयपूर्वक राजासे पूछा कि लंकापुरी आदि सबके बारेमें जो जैसा हुआ हो वह आप हमें यथार्थ रूपसे कहें। (२२३) इस पर उसने कहा कि उस नगरीमें अशनिवेग द्वारा प्रतिष्ठित और शत्रुओंके भयकी बिलकुल परवाह न करनेवाला निर्घात नामका एक दानव रहता है। ( २२४) वह नगरी कुलपरम्परासे गुणोंसे समृद्ध तथा अत्यन्त रमणीय हमारी थी, किन्तु उसके भयसे, हे पुत्रो! हमने उसका त्याग कर दिया है। (२२५) हे पुत्रो! पापी और भयंकर रूपवाले उसने चारों ओर यंत्र लगा दिये हैं जो लोगोंको मार डालते हैं। ( २२६) ऐसा कथन सुनकर विद्याओंमें महत्ता-प्राप्त वे सिंह जैसे कुमार पातालपुरसे बाहर निकले। (२२७) चतुरंग सेनाके साथ आकाशमार्गसे उड़कर और यंत्रोंके समूहको तहसनहस करके वे शीघ्र ही लंकापुरीमें आ पहुँचे । (२२८) उनका आगमन सुनकर राक्षस योद्धा तथा तलवार एवं बाणोंसे निकलनेवाली किरणोंसे व्याप्त निर्घात प्रज्वलित सूर्यकी भाँति सामना करनेके लिए बाहर निकले । (२२९) जिस तरह वर्षाकालमें बादल छाये होते हैं, पवन बहता है, पानी बरसता है और बिजली चमकती है, उसी तरह वह रणभूमि भी एकदम हाथी रूपी बादल, कानकी फड़फड़ाहटसे उत्पन्न पवन, मदबिन्दुके झरनेरूपो पानीसे युक्त तथा तलवाररूपी बिजलीसे व्याप्त हो गई। (२३०) एक दूसरेके ऊपर वेगसे फेंके गए बाणोंके अग्रभागमेंसे निकलनेवाली उल्काके जैसे शस्त्रोंसे दोनों सेनाओंके सुभट जीनेको आशा छोड़कर जूझ पड़े। (२३१) दर्पित देव एवं दानवोंको भाँति निर्घात और माली दोनों सुभट आयुधोंका एक दूसरे पर प्रहार करते हुए रणक्षेत्र में भिड़ गये। (२३२) दोनों तरफ़के लोगोंके संघर्षसे युक्त ऐसा युद्ध जब चल रहा था तब माली सुभटसे चोट खाया हुआ निर्घात मर गया। (२३३) युद्ध में निर्घात मारा गया है ऐसा जान कर उसकी सेनाके पैर उखड़ गये और मनमें भयसे व्याकुल होकर वैताट्यमें पहुँच गई । (२३४) इसके पश्चात् ढोल, भेरि, झालर तथा 'जय' शब्दसे उद्घोषिप्त मंगल-ध्वनिके साथ मालीने अपने बन्धुवर्गके सहित लंकापुरीमें प्रवेश किया। (२३५) पिता-माता एवं स्वजन सहित वह परिजन तक फैले हुए भोगविस्तारवाले गुणसमृद्ध राज्यका निष्कण्टक तथा अनुकूल उपभोग करने लगा। (२३६)
१. समिद्धा-प्रत्य। २. अभिमुखम् ।
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