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________________ ७० पउमचरियं [६. १९१असि-कणय-परसु-पट्टिस-संघट्टट्ठन्तघायपज्जलियं । बहुभउजीयन्तकर, जुझं अइदारुणं लग्गं ॥ १९१ ॥ उग्गिष्णखम्गहत्थो, संपत्तो अन्धओ असणिवेगं । किक्किन्धी वि रणमुहे, आभिट्टो विजुवेगस्स || १९२ ॥ निहओ अन्धकुमारो. चंडकवेगेण समरमज्झम्मि । वोच्छिन्नजीवियासो, रणरसपरिमुक्कवावारो ॥ १९३ ॥ किक्किन्धिनरवईण वि, कढिणसिला गिण्हिऊण विक्खित्ता । वच्छत्थलम्मि विउले, पडिया सा विजुवेगस्स ॥ १९४ ॥ सो असणिवेगपुत्तो. तं चेव सिलं महन्त-वित्थिण्णं । पेसेइ पडिपहेणं, वाणरनाहस्स आरुट्टो ॥ १९५॥ नग-नयर-गोउरसमे, पडिया वच्छत्थले सिला सिग्छ । तेण पहरेण पत्तो, किक्किन्धिनराहिवो मोहं ॥ १९६ ॥ लाहिवेण घेत्तु, नीओ पायालपुरवराभिमुहो । आसत्थो च्चिय पुच्छइ, कत्तो सो अन्धयकुमारो? ॥ १९७ ॥ सिट्रं च निरवसेसं. सो तुज्झ सहोयरो समरमज्झे । रायाऽसणिवेगहओ, पत्तो य रणे महानिई ॥ १९८ ॥ सोऊण वयणमेयं, सत्तिपहारोवमं अकण्णसुहं । मुच्छावलन्तनयणो, धस त्ति धरणीयले पडिओ ॥ १९९ ॥ चन्दणजलोलियङ्गो, पडिबुद्धो विलविऊणमाढत्तो । नाणाविहे पलावे, भाइविओगाउरो कुणइ ॥ २०० ॥ तो विलविऊण बहुयं, सुकेसि किक्किन्धिसाहणसमग्गो । पायालंकारपुरं, सिग्धं पत्ता भउबिग्गा ॥ २०१ ।। अह पविसिऊण नयरे, कञ्चणवररयणतुङ्गपायारे । अच्छन्ति बन्धुसहिया, पमोयसोगं च वहमाणा ॥ २०२॥ अह अन्नया कयाई, इन्दधणु पेच्छिउँ विलिजन्तं । सो असणिवेगराया, संवेगपरायणो जाओ ॥ २०३ ॥ विसयसुहमोहिओ है, लद्धण वि माणुसत्तणं पावो । धम्मचरणाइरेगं, संजममग्गं न य पवन्नो ॥ २०४॥ . अहिसिञ्चिऊण रज्जे, सहसारं सबसुन्दरं पुत्तं । तडिवेगेण समाणं, जाओ समणो समियपावो । २०५॥ तथा बहुतसे सुभटोंके जीवनका अन्त करनेवाला अतिभयंकर युद्ध होने लगा। ( १९१ ) हाथमें तलवार ऊपर उठाकर अन्धक अशनिवेगकी ओर झपटा तो किष्किन्धि भी युद्ध में विद्युद्वगके साथ भिड़ गया । (१९२) चण्डार्कवेगने युद्धमें अन्धककुमारको मार डाला। जीवनकी आशा नष्ट होने पर युद्धरसका व्यापार उसने छोड़ दिया। (१९३) किष्किन्धिराजने भी एक कठोर शिला उठाकर फेंकी। वह विद्युद्वेगके विशाल वक्षस्थल पर जा गिरी। (१९४) अशनिवेगके पुत्र विद्यद्वेगने गुस्से में श्राकर वह बड़ी और विशाल शिला वापस वानरनाथके ऊपर फेंकी। ( १९५) फौरन ही वह शिला उसके पर्वत एवं नगरके गोपुरके समान विशाल व दृढ़ वक्षस्थलके ऊपर गिरी। शिलाके इस प्रहारसे किष्किन्धि नगरीका राजा बेहोश हो गया। (१९६) लंकाका राजा उसे उठाकर पातालपुरमें लाया। होशमें आने पर उसने पूछा कि अन्धककुमार कहाँ है १(१९७), लंकाधिपने समग्र वृत्तान्त कह सुनाया कि समरभूमिमें अशनिवेग द्वारा आहत तुम्हारा भाई वहाँ सदाके लिये सो गया है। (१९८) शक्तिकी चोट सरीखे तथा कानोंके लिये असुखकर ये वचन सुनकर जिसकी आँखें घूम रही हैं ऐसा वह मूञ्छित होकर धम् करके जमीन पर गिर पड़ा। (१९९) चन्दन जल छाँटने पर होशमें आया हुआ वह विलाप करने लगा और भाईके वियोगसे दुःखी हो अनेक प्रकारके प्रलाप करने लगा। (२००) इस प्रकार बहुत विलाप करनेके पश्चात् भयसे उद्विग्न सुकेशी किष्किन्धिके समग्र सैन्यके साथ पातालालंकारपुर नामक नगरमें जल्दी ही आ पहुँचा। (२०१) स्वर्ण एवं उत्तम रत्नोंसे युक्त उन्नत प्राकारवाले उस नगरमें प्रवेश करके बन्धु सहित वे प्रमोद एवं शोकको धारण करके रहने लगे। (२०२) इसके बाद एक दिन मेघधनुषको विलीन होते देख अशनिवेग राजा वैराग्य युक्त हुआ। ( २०३) वह सोचने लगा कि मनुष्य जन्म प्राप्त करके भी बिषयसुखमें मूढ़ पापो मैंने न तो अतिशय धर्माचरण ही किया और न संयममार्गका ही अवलम्बन लिया । (२०४) इस तरह सोचकर सब लोगोंकी अपेक्षा सुन्दर अपने सहस्रार नामके पुत्रको राज्य पर अभिषिक्त करके तडिद्वेगके साथ वह पापोंको शान्त करनेवाला श्रमण हुआ। (२०५) इस बीच अशनिवेग द्वारा स्थापित तथा १. अशनिवेगेन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001272
Book TitlePaumchariyam Part 1
Original Sutra AuthorVimalsuri
AuthorPunyavijay, Harman
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year2005
Total Pages432
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Story, & Jain Ramayan
File Size13 MB
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