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६. रक्खस-वाणरपव्वज्जाविहाणाहियारो दट्टण विजयसीहो, किक्किन्धि कुसुममालकयकण्ठं । रुट्ठो पवंगमाणं, आभासइ उच्चकण्ठेणं ॥ १७६ ॥ न य एत्थ नन्दणवणं, फलाउलं नेव निज्झरा रम्मा । न य वाणराण वन्दं, जेणेत्थ पवंगमा पत्ता ॥ १७७ ॥ जेणेते दुरायारा, आणीया वाणरा इहं पावा । दूयाहमस्स सिग्धं, तस्स फुडं निग्गह काहं ॥ १७८ ॥ सोऊण वयणमेयं, गय-तुरयसमोत्थरन्तपाइक्वं । खुहियं पवंगमबलं, सागरसलिलं व उच्छलियं ॥ १७९ ॥ करपीणसमुप्फोडण-बुक्कारव-तुरयहिंसियरवेणं । बहिरीकयं व नज्जइ, भुवणमिणं तूरसद्देणं ॥ १८० ॥ आलग्गा पवरभडा, विज्जाहरपत्थिवेहि सह जुझं । असि-कणय-चक्क-तोमर-घणपहरणपडणमुसमिद्धं ॥ १८१ ॥ हत्थी हत्थीण सम, अन्भिट्टो रहवरो सह रहेणं । तुरएण सह तुरङ्गो, पाइको सह प्रयत्थेणं ॥ १८२ ॥ खेयर-पवंगमाणं, वट्टन्ते भेरवे महाजुज्झे । ताव य किकिन्धिसही, सुकेसिराया समणुपत्तो॥ १८३ ॥ तो सो महोरगो इव, रक्खसनाहो उवट्टिओ पुरओ । विज्जाहरेहि समय, जुज्झइ पसरन्तबलनिवहो ॥ १८४ ॥ एत्थन्तरम्मि जुझं, आवडियं दारुणं वरभडाणं । विच्छूढघायपउर, अन्धयवर-विजयसीहाणं ॥ १८५ ॥ अन्धकुमारेण तओ, किक्किन्धिसहोयरेण रणमज्झे । छिन्नं च असिवरेणं, सीसं चिय विजयसीहस्स ॥ १८६ ॥ सोऊण पुत्तमरणं, बजेण व ताडिओ असणिवेगो । परिदेविउं पयत्तो, सोगमहासागरे पडिओ ॥ १८७ ॥ वहिऊण विजयसीह, पवंगमा रक्खसा य बलसहिया । आगासगमणदच्छा, किक्किन्धिपुरं समणुपत्ता ॥ १८८ ॥ राया वि असणिवेगो, सोगं मोत्तूण रोसपज्जलिओ । अह ताण मग्गलग्गो, समागओ सो वि किक्किन्धि ॥ १८९ ।। सोऊण असणिवेगं, समागयं रणपयण्डसोडीरं । वाणरसुहडाऽभिमुहा, विणिग्गया रक्खसभडा य ॥ १९० ॥
पुष्पमालासे शोभित कण्ठवाले किष्किन्धिको देखकर गुस्से में आया हुआ विजयसिंह जोरोंसे चिल्लाकर वानरोंसे कहने लगा कि यहाँ पर न तो फलसे भरा पूरा नन्दनवन है, न सुन्दर झरने हैं और न बन्दरियोंके समूह ही हैं जिससे यहाँ तुम सब बन्दर इकट्ठे हुए हो। (१७६-१७७) जो दुराचारी, पापी और अधम दूत यहाँ बन्दरोंको लाया है उसे मैं शीघ्र ही योग्य दण्ड दूंगा। (१७८) विजयसिंहका ऐसा कहना सुनकर हाथी, घोड़े, रथ एवं पैदल सैनिकोंसे युक्त वानरोंकी क्षुब्ध सेना सागरके जलकी भाँति उछलने लगी। (१७९) मांसल सूंदोंके आस्फाटन व गर्जारवसे तथा घोड़ोंकी हिनहिनाहट
और युद्धवाद्योंकी ध्वनिसे यह संसार मानो बधिर बना दिया गया हो ऐसा ज्ञात होता था। (१८०) विद्याधर राजाओंके साथ तलवार, पत्थर, चक्र, तोमर (बाण-विशेष ), हथौड़े और अस्रोंके प्रहारसे युक्त युद्ध करने में बड़े-बड़े सुभट जुट गये। (१८१) हाथीके साथ हाथी, रथके साथ रथ, घोड़ेके साथ घोड़े और पैदलके साथ पैदल भिड़ गये । (१८२) जव विद्याधर एवं वानरोंका ऐसा भयंकर महायुद्ध हो रहा था तब किष्किन्धिका मित्र सुकेशिराजा आ पहुँचा। (१८३) वह राक्षसनाथ बड़े भारी नागको भाँति सामने उपस्थित हुआ और विस्तृत सैन्यसमूहसे युक्त हो विद्याधरोंके साथ लड़ने लगा। (१८४) इधर अत्यन्त शूरवीर अन्धकवर तथा विजयसिंह के बीच एक दूसरे पर फेके जानेवाले प्रहरणोंसे व्याप्त दारुण युद्ध होने लगा। (१८५) तब किष्किन्धिके सहोदर भाई अन्धककुमारने युद्धक्षेत्रमें तलवारसे विजयसिंहका सिर काट डाला । (१८६) अपने पुत्रके मरणका वृत्तान्त सुनकर शोकसागरमें डूबे हुए अशनिवेग पर मानो बिजल गिरी हो इस तरह वह रुदन करने लगा। (१८७) विजयसिंहका बध करनेके अनन्तर आकाशमार्गसे गमन करने में दक्ष वानर व राक्षस अपनी अपनो सेनाके साथ किष्किन्धिपुरमें आ पहुँचे । (१८८) गुस्सेसे जले भुने अशनिवेग राजाने भी शोकका परित्याग करके उनका पीछा पकड़ा और किष्किन्धि नगरीमें आ धमका। (१८९) युद्धभूमिमें प्रचण्ड शौर्य दिखानेवाले अशनिवेगका आगमन सुनकर वानरों व राक्षसोंके सुभट उसका सामना करनेके लिए निकल पड़े । (१९०) तलवार, पत्थर, कुल्हाड़े तथा पट्टिस (शस्त्र विशेष) के एक दूसरे साथ टकरानेसे एवं एक दूसरेके ऊपर वार करनेसे प्रज्वलित-सा प्रतीत होनेवाला
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निज्झराऽऽरामा-प्रत्य। २. पदस्थेन ।
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