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________________ युद्ध, दण्ड और अहिंसा सहज, सौम्य मातृत्व क्रूर नहीं हो जाता, सुकोमल ही रहता है। माता के द्वारा दिए जाने वाले शारीरिक दण्ड में भी हितबुद्धि रहती है, विवेक रहता है, एक उचित मर्यादा रहती है । भगवान् महावीर का अहिंसा-दर्शन इसी भावना को ले कर चलता है । वह मानवचेतना के संस्कार एवं परिष्कार में अन्त तक अपना विश्वास बनाए रखता है। उसका आदर्श है-अहिंसा से काम लो। यह न हो सके तो अल्प से अल्पतर हिंसा का पथ चुनो, वह भी हिंसा की भावना से नहीं, अपितु भविष्य की एक बड़ी एवं भयानक हिंसा के प्रवाह को रोकने की अहिंसाभावना से । इस प्रकार हिंसा में भी अहिंसा की दिव्यचेतना सुरक्षित रहनी चाहिए। अन्यायपूर्ण स्थिति को सहते रहना, अन्याय एवं अत्याचार को प्रोत्साहन देना है । यह दब्बूपन का मार्ग अहिंसा का मार्ग नहीं है। कायरता कायरता है, अहिंसा नहीं है । अहिंसा मानव से अन्याय-अत्याचार के प्रतिकार का न्यायोचित अधिकार नहीं छीनती है । वह कहती है, प्रतिकार करो, परन्तु प्रतिकार के आवेश में मुझे मत भूल जाओ। प्रतिकार के मूल में विरोधी के प्रति सद्भावना रखनी चाहिए, बुरी भावना नहीं । प्रेम, सद्भाव, नम्रता, आत्मत्याग अपने में एक बहुत बड़ी शक्ति है । कैसा भी प्रतिकार हो, इस शक्ति का चमत्कार एक दिन अवश्य होता है । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। युद्ध और अहिंसा कमी-कभी यह सुनने में आता है कि कुछेक लोग यह कहते हैं----'अहिंसा व्यक्ति को कायर बना देती है, इससे आदमी का वीरत्व एवं रक्षा का साहस ही मारा जाता है।" किन्तु यह धारणा निर्मूल एवं गलत धारणा है। आत्मरक्षा के लिए उचित प्रतिकार के साधन जुटाना, जैनधर्म के विरुद्ध नहीं है ; किन्तु आवश्यकता से अधिक संगृहीत एवं संगठित शक्ति अवश्य ही संहारलीला का अभिनय करेगी, अहिंसा को मरणोन्मुखी बना देगी। आप आश्चर्य न करें, पिछले कुछ वर्षों से जो शस्त्रसंन्यास का आन्दोलन चल रहा है, प्रत्येक राष्ट्र को सीमित युद्धसामग्री रखने को जो कहा जा रहा है, उसे तो जैन तीर्थंकरों ने हजारों वर्ष पहले चलाया था। आज जो कार्य कानून एवं संविधान के द्वारा लिया जा रहा है, वह उन दिनों उपदेशों के द्वारा लिया जाता था। भगवान् महावीर ने बड़े-बड़े राजाओं को जैनधर्म में दीक्षित किया था और उन्हें नियम कराया था कि वे राष्ट्ररक्षा के काम में आने वाले आवश्यक शस्त्रों से अधिक शस्त्रसंग्रह न करें। साधनों का आधिक्य मनुष्य को उदंड एवं अमर्यादित बना देता है। प्रभुता की लालसा में आ कर वह कभी न कभी किसी पर चढ़ दौड़ेगा और मानव-जगत् में युद्ध की आग भड़का देगा। इस दृष्टि से जैन तीर्थंकरों ने हिंसा के मूल कारणों को ही उखाड़ने का प्रयत्न किया है । आज विज्ञान की चकाचौंध में भूला मानव भले यह गर्व करे कि एक-से-एक अधिक शक्तिशाली शस्त्रास्त्रों का निर्माण कर विज्ञान युद्ध को सदा के लिए समाप्त कर देगा ; किन्तु यह मृगमरीचिका से कतई कम नहीं है। माना, विज्ञान ने कुछेक ऐसी चमत्कारी उपलब्धियों को प्रस्तुत कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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