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________________ अहिंसा-दर्शन फिर अहिंसा की बात करने का हमारा क्या तात्पर्य है ? कैसे हम अहिंसक रह सकते हैं ? और हम क्या, इस तरह से तो वीतराग केवली भी अहिंसा का पालन कैसे कर सकेंगे? इस प्रकार के प्रश्न प्रायः साधारण लोगों के और कभी-कभी विचारकों के सामने भी उठा सकते हैं। अब हमें देवना यह है कि क्या वस्तुतः बात ऐसी ही है ? क्या अहिंसा सचमुच ही व्यवहार में आने योग्य नहीं है । यदि हृदय की सचाई से विचार किया जाए और भारत के सुनहरे इतिहास पर दृष्टिपात किया जाए तो पता चलेगा कि यह विचार सही नहीं है । जो वस्तु कई शताब्दियों से लगातार व्यवहार में आती रही है, और भगवान् महावीर जैसे महापुरुषों ने, गौतम जैसे सन्तों ने और आनन्द जैसे संभ्रान्त गृहस्थों ने तथा वर्तमान में राष्ट्रपिता गाँधीजी तक ने भी व्यावहारिक जीवन में जिसके सफल प्रयोग करके दिखलाए हैं ; फिर उसकी व्यावहारिकता में आज किसी प्रकार की शंका करना कैसे उचित कहा जा सकता है ? एक नहीं, हजारों साधकों ने, जो अहिंसा की संतापशामिनी छाया में आये, कहा कि यह अहिंसा आकाश की नहीं, धरती की चीज है शत-प्रतिशत व्यवहार की चीज है। जिन्होंने अहिंसा का आचरण अपने जीवन-व्यापार में किया है, उन्हें तो वह स्वप्न में भी अव्यवहार्य नहीं लगी, किन्तु जिन्होंने एक दिन भी अपना जीवन अहिंसामय नहीं बिताया, वे अपने मनगढन्त तर्कों के आधार पर उसे अव्यवहार्य मानते हैं ! क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है ? अहिंसा के बिना जीवन में एक कदम भी गति सम्भव नहीं __ अहिंसा के बिना हमारा जीवन एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता । मानव यदि मानव के रूप में जीवन-पथ पर अग्रसर होना चाहता है, और मनुष्य यदि मनुष्य के रूप में अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता है तो अहिंसा के बिना वह एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता । निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए यदि मनुष्य अपने जीवन के एक-एक कदम पर दूसरों का खून बहाता हुआ और संहारक संघर्ष करता हुआ चलता है तो वह मनुष्य की वास्तविक गति नहीं है। वह तो सचमुच हैवान, राक्षस और दैत्य की गति है। मानव और दानव के चलन में दिन-रात जैसा विपरीत अन्तर है। इस अन्तर को भूतल के प्रत्येक मनुष्य को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। वस्तुतः जब आदमी चलता है, तो वह जीवन-पथ में किसी दूसरे के लिए काँटे नहीं बिछाता है । वह तो सुखदायी जीवन का महत्त्वपूर्ण सन्देश देता हुआ ही चलता है और आनन्द के फूल बरसाता हुआ चलता है। जिधर भी उसका पदार्पण होता है प्रेम की फुहारें छूटती दिखलाई पड़ती हैं । यदि वह अपने कर्त्तव्यमय कदमों से घृणा की फुहारें छोड़ता है तो समझ लो कि वह इन्सान नहीं, बल्कि हैवान है । मोटर-ड्राइवर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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