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________________ क्या अहिंसा अव्यवहार्य है ? चारों ओर हिंसा के वातावरण में अहिंसा का पालन कैसे ? जैनदर्शन ने हिंसा, अहिंसा का सूक्ष्म विश्लेषण किया है । हिंसा क्या है ? इस सम्बन्ध में एक मोटा-सा स्थूल सिद्धान्त प्रचलित है कि 'प्राणी-हत्या' हिंसा है । यदि हम इस सिद्धान्त की बारीकी में जाएँगे तो एकदम मन कह उठेगा कि फिर तो संसार में पूर्ण अहिंसक कोई हो ही नहीं सकता। चूंकि जब तक शरीर है हलन-चलन की क्रिया भी होती रहेगी, श्वासोच्छवास भी चलते रहेंगे। और जब हम यह मानते हैं कि संसार में चारों ओर असंख्य प्राणी भरे हैं। हवा के एक झोंके में ही असंख्यअसंख्य प्राणियों का विनाश हो जाता है। आँख झपकने में ही असंख्य प्राणियों का काल आ जाता है _ "पक्ष्मणोपि निपातेन तेषां स्यात्स्कन्ध-पर्ययः ।" ऐसी स्थिति में वीतरागी पुरुष भी इस हिंसा से नहीं बच सकते । और उनके जीवन में भी जब अहिंसा की भूमिका नहीं आ सकती, तो फिर साधारण मनुष्यों की क्या बात करें ? __ मैं एक बार एक इजीनियरिंग कालेज में व्याख्यान देने गया था। बात चल पड़ी तो लेबोरेटरी विभाग वालों ने आग्रह किया कि आइए, हम आपको अपने यन्त्र दिखलाएँ। उन्होंने एक कागज का टुकड़ा लिया और कहा-'देखिए, इस पर कुछ दिखाई देता है ?' कागज तो बिल्कुल साफ था, मिट्टी या घूल कुछ भी तो उस पर नहीं लगी हुई थी। उसे माइक्रोस्कोप के नीचे रखा और कहा-'अब देखिए ।' देखा तो आश्चर्य कि मेरी गणना से बाहर जीवपिंड जैसे कुलबुला रहे थे। एक स्वच्छ कागज पर, जहाँ आँखों से एक जीव भी हिलता-डोलता नहीं दिखाई देता, वहाँ इतने जीवाणु ! मेरे मन में विचार आया कि इस प्रश्न पर वास्तव में जैनदर्शन कितना गहरा गया है। उसने कण-कण में जीवाणु भरे हुए बतलाए तो किसी समय में यह मजाक की बात रही होगी, पर आज के विज्ञान ने तो उसे परम सत्य सिद्ध कर दिया । अतः यह स्पष्ट है कि विश्व में कोई भी ऐसा स्थान नहीं, जहाँ सूक्ष्मशरीरधारी जीव न भरे हों । स्थूलशरीरधारी जीव भी असंख्य हैं, अनन्त हैं । जल में भी जीव हैं, थल में भी जीव हैं, हवा में भी जीव हैं । चारों ओर जीवों से संकुल है यह विश्व । प्रश्न है, तब साधक अहिंसक कैसे रह सकता है ? "जले जीवाः स्थले जीवा, जीवाः पर्वतमस्तके । जीवमालाकुले लोके, कथं भिक्षुरहिंसकः ?" जरा हाथ हिला नहीं कि असंख्य जीव मौत के घाट उतर गए । जरा पैर हिला नहीं कि असंख्य प्राणी कालकवलित हो गए । हर श्वास के साथ प्राणी मर रहे हैं, दो चार नहीं, एक साथ असंख्य । अभिप्राय यह है कि जब जीवहिंसा से कोई भी मनुष्य बच नहीं सकता, तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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