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________________ अहिंसा-दर्शन यही गया है कि मानवमन ने उन संहारक शस्त्रास्त्रों से त्रस्त हो कर परस्पर सहानुभूति एवं सहअस्तित्व के आधार पर ही शान्ति की स्थापना की है । लीग ऑफ नेशन्स एवं संयुक्त राष्ट्रसंघ (यू० एन० ओ०) ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास किया है और उसके बाद अहिंसा एवं सहअस्तित्व के आधार पर जो शान्ति स्थापित की गई है, वह बहुत अंशों में स्थायी सिद्ध हुई है। अतः यह निश्चित है कि अहिंसा द्वारा सम्पादित विजय स्थायी एवं शाश्वत विजय होती है। इसी शाश्वत सत्य को अभिव्यक्त करते हुए राष्ट्रकवि दिनकर ने कहा है ऐसी शान्ति राज करती है, तन पर नहीं, हृदय पर। नर के ऊँचे विश्वासों पर, श्रद्धा, भक्ति, प्रणय पर । भले ही विज्ञान हमें विपुल परिमाण में शस्त्रास्त्र का खजाना प्रदान करे, परन्तु हमें उन शस्त्रास्त्रों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिए, बल्कि उन्हें सदा अपने नियन्त्रण में रखना चाहिए । शस्त्रास्त्रों का प्रयोग सुरक्षा एवं शान्ति की रक्षा के लिए मर्यादित तरीके से होना चाहिए। हर चीज के मूल में हित की भावना का होना परमावश्यक है। ऐसे में विज्ञान अहिंसा का सहचर सिद्ध हो सकता है, संहारक नहीं । मानव पहले मानव है, उसके पश्चात् और कुछ-इसका सदैव ध्यान रहना चाहिए। अहिंसा और राजनीति : विश्व के महान् राजनेताओं ने समय-समय पर विज्ञानप्रदत्त विपुल एवं भयानक संहारक शस्त्रास्त्रों से संत्रस्त हो कर, अहिंसा के द्वारा शान्ति का मार्ग खोजने का प्रयत्न किया है । उन्होंने यह तथ्य पाया है कि शाश्वत शान्ति युद्ध की विभीषिका एवं आणविक शस्त्रास्त्रों के संहारक प्रयोग में नहीं, बल्कि अहिंसा एवं सह-अस्तित्व में निहित है। भारत के प्रधानमन्त्री स्व. पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अहिंसा को अपनी नीति में सदा महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। उनका पंचशील का निर्माण इस दिशा में महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक उपलब्धि है। सन् १९६१ में बेलग्रेड में हुआ आणविक विभीषिका के संरक्षणार्थ विश्व के विभिन्न राष्ट्रों का सम्मेलन भी, इस दिशा में गौरवपूर्ण प्रयास है। उक्त सम्मेलन में अहिंसासम्बन्धी सिद्धान्त को ही स्पष्ट करते हुए स्व. पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था-"मानवता खतरे में है, हमें इसी पहलू से सोचना है । यानी जो जरूरी सवाल है, उस पर पहले सोचें, और यह जरूरी सवाल है-युद्ध और शान्ति का । जब विश्व विनाश की ओर बढ़ रहा है, तो दूसरे सवाल गौण हैं ।..." """मुझे बड़ा ही ताज्जुब होता है कि महान् शक्तियाँ इसे इज्जत का प्रश्न बना कर अपनी-अपनी बात पर दृढ़ हैं और यह इतनी महान् और शक्तिशाली हैं कि शान्तिवार्ता के लिए तैयार नहीं। मेरा विश्वास है कि यह एक गलत रुख है; इसमें उनकी इज्जत का ही प्रश्न नहीं, बल्कि मानवजाति के भविष्य का भी प्रश्न है।" www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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