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अहिंसा-दर्शन
अपने आपको देखो और विश्व की समस्त आत्माओं को अपने भीतर देखो' ।" वस्तुतः यह साधना समत्वयोग की साधना है, जिसका मूल आधार विश्व की समग्र आत्माओं के साथ अपने जैसा व्यवहार करना है। हम अपने लिए जिस प्रकार का व्यवहार दूसरों से चाहते हैं, हम अपने लिए जिस प्रकार की स्थिति की अपेक्षा दूसरों से करते हैं, अन्य समस्त प्राणियों के लिए भी हम वैसा ही व्यवहार करें, वैसी ही स्थिति निर्मित करेंयही अहिंसा का अन्तर्ह दय है । आत्मौपम्य दृष्टि
भगवान् महावीर ने विश्वप्राणियों के मध्य समता की संस्थापना करते हुए कहा था कि 'विश्व की सभी आत्माएँ एक हैं।"3 अर्थात् सभी प्राणी संग्रह और व्यवहार नय की दृष्टि से एक ही चैतन्यसागर की अलग-अलग बूंदें हैं, एक ही मूल चैतन्यवृक्ष की अलग-अलग पत्तियाँ एवं फूल हैं, जो सभी एक साथ मिल कर चैतन्यभावसागर का रूप लेती हैं, विशाल वृक्ष का पर्याय बनती हैं । यथार्थ में यह भावना अपने अन्दर में धारण करना एक महान् योग है । इसी को गीता में श्रीकृष्ण ने यों कहा है"जो सभी जीवों को अपने समान समझता है और उनके सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझता है, वही परम योगी है"। यह समत्वयोग की साधना ही आत्मा की साधना है, अपने आपको साधने का पथ है। इसी भावना को सर्वोपरि बताते हुए भगवान् महावीर ने कहा है-"विश्व के समग्र जीवनिकाय को अपनी आत्मा के समान समझो"५ । "प्राणिमात्र को आत्मतुल्य समझो" । अतः हम कह सकते हैं कि यह आत्मौपम्य दृष्टि, जिसके विषय में भगवान् महावीर ने उद्घोष किया है, इसके मूल में अहिंसा के अमृतसागर की लहरें ही हिलोरें ले रही हैं । यह अहिंसा-सागर की लहरें, जिस भावनातल पर लहरा रही हैं, उसकी साधना सामान्य साधना नहीं है; अपितु वीरत्व की महान् साधना है। अहिंसा : वीरत्व का मार्ग
वस्तुतः यह जो अहिंसा की साधना है; यह आत्मा के विराटभाव की साधना है । आत्मा का भावनात्मक दृष्टि से इतना व्यापक रूप में विकास कर लेना है कि विश्व की सभी आत्माएँ उसमें ठीक उसी प्रकार समाहित हो जाएँ, जिस प्रकार कि भूतल पर लहराने वाली अनेकों नदियाँ सागर में आ कर एकीभाव से समाहित
-दशवैकालिक, ४६ ---ठाणांग, सूत्र १-१
२ सव्वभूयप्पभूयस्स, सम्म भूयाइं पासओ। ३ एगे आया। ४ आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं, स योगी परमो मतः ।। ५ अप्पसमे मन्निज्ज छप्पिकाए । ६ आयतुले पयासु ।
--गीता, अ० ६।३२ -दशवकालिक, १०५ -सूत्रकृतांगसूत्र, १११०३
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