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________________ ३८२ अहिंसा-दर्शन भी कहाँ ? इस विश्व के बाहर उसका कहाँ ठिकाना है ? कहीं भी जाए, रहेगा तो संसार के वायुमण्डल में ही । इसलिए, जब तक व्यक्ति गृहस्थ हो, उसे संसार में रहते हुए ही, कमल की भांति निलिप्त रहने की कठिन साधना करनी चाहिए । संसारसागर में जीवन-जहाज को सफलतापूर्वक चलाने के लिए इसके सिवाय और कोई दूसरा चारा नहीं है। __यदि साधु गोचरी के लिए जाए और वहाँ किसी आकर्षणवश उसका मन डगमगाने लगे तो, यह कैसे चलेगा ? आखिर, उसे भी यह कला सीखनी ही पड़ेगी। यह अपार संसार है, यह दुर्गम दुनिया है। इसी से वस्त्र-पात्र भी लेना है, झोंपड़ियों और महलों में भी जाना है । आँख बन्द करके नहीं चल सकते, नाक बन्द करके नहीं जी सकते, और हाथ-पैर बाँध कर निष्क्रिय बैठ भी नहीं सकते। सब इन्द्रियाँ अपने गुण-कर्म-स्वभाव के अनुरूप अपना काम करती ही रहेंगी। फिर साधु तो ऐसी कला सीखते हैं कि खाते, पीते, सुनते और देखते हुए भी मोह-वासना के कीचड़ में नहीं फँसते । दैनिक व्यवहार में प्रायः वे निन्दा भी सुनते हैं, स्तुति भी सुनते हैं, अच्छा या बुरा, जैसा भी रूप आँखों के सामने से गुजरता है, उसे देखते भी हैं । किन्तु निर्लिप्त भावना के कारण वे मोह-जन्य वासना के कुचक्र में नहीं फंसते, सदैव उससे परे ही रहते हैं, क्योंकि सांसारिक मोह-वासना का कुचक्र साधु-जीवन को अधःपतन के गर्त में ले जाने वाला है। अस्तु, कमल की वही कला सबको भी सीखनी है। यदि कोई भागना भी चाहेगा तो कब तक भागेगा ? भगवान् महावीर का यह अटल सिद्धान्त है कि-"जिस किसी भी स्थिति में रहो, किन्तु यह कला सीख लो कि कमल जल में रहता है और जल में रह कर भी सूखा ही रहता है।"२ यदि यह दिव्य-दृष्टि जीवन में मिल गई, तो समझ लो कि जीवन की सफल कला मिल गई । जिसे जीवन की यह मंगलमयी कला मिल गई, वह साधक उत्तरोत्तर ऊपर ही उठता जाता है और सांसारिक मोहवासना का कोई विकार उसकी प्रगति में बाधक नहीं होता।। उस सेठ के लड़के ने लाखों-करोड़ों कमाए । वह धन भी कमाता रहा और सदाचारी भी बना रहा । वह धन कमा कर जब घर लौटा तो नगर के लोग उसके स्वागत के लिए उमड़ पड़े । सेठ भी अपने परिवार के साथ हर्षोल्लास से गद्गद स्वागतार्थ दौड़ा । बड़े सम्मान के साथ, इज्जत के साथ और धूमधाम के साथ उसने नगर में प्रवेश किया। वह तो प्रफुल्लित था ही, साथ ही हर एक नगर-निवासी भी हर्षोल्लास से भरपूर था। सेठ का दूसरा लड़का भी बाहर गया, उसने भी किसी व्यवसाय में पूजी लगाई। किन्तु वह अपनी बुद्धि एवं प्रतिभा का अच्छी तरह उपयोग न कर सका, फलतः उसने कुछ पाया नहीं, किन्तु साथ ही खोया भी नहीं। पिता की दी हुई पूजी २ "जहां पोम्म जले जायं नोवलिप्पइ वारिणा।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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