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अहिंसा-दर्शन
शांति की बात होगी, या कि उसे इधर आने से रोक कर ? दिनरात अभावों में तड़पते रहना भी कोई श्रेयस्कर जिन्दगी है ? अतः स्पष्ट है, अमुक अंश में, परिवार नियोजन का कार्यक्रम भी अहिंसा के क्षेत्र में आता है। जनसंख्या के अनुपात में उपभोग के साधन
यह सच है कि परिवार-नियोजन वर्तमान युग की बढ़ती हुई जनसंख्या की समस्या का एक सामान्य समाधान बन गया है। किन्तु वस्तुतः यह समस्या वर्तमान की ही नहीं, मानव-जाति की आदिम समस्या है। जैनपुराणों का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि तीर्थंकर ऋषभदेव से पूर्व, जबकि अकर्मभूमि में यौगलिक सभ्यता थी, जनसंख्या सीमित थी, और उपभोग-सामग्री प्रचुरमात्रा में उपलब्ध थी। आगे चल कर जनसंख्या बढ़ने लगी, तो उपभोग-सामग्री में कमी आने लगी। फलतः संघर्ष, विग्रह और युद्ध होने लगे । समाज में विशृखलताजन्य अशांति बढ़ने लगी । और तब युगद्रष्टा ऋषभदेव ने कृषि एवं उद्योग का विकास करके अभावजनित विग्रह की शान्ति का पथ प्रशस्त किया।
यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि जनसंख्या वृद्धि के साथ यदि उपभोग-सामग्री की वृद्धि नहीं होती है, तो गरीबी, अभाव और तज्जन्य संघर्ष पैदा होते हैं । ऋषभदेव के युग में जनसंख्या की वृद्धि का होना आवश्यक था, अतः उनके समय में परिवारनियोजन का प्रश्न उपस्थित न हुआ। किन्तु जन-जीवन को अभावजन्य पीड़ा से बचाने के लिए उन्होंने कृषि एवं उद्योग का समाधान प्रस्तुत कर लोकहित का एक महत्त्वपूर्ण मार्ग प्रशस्त किया, जिसके परिणामस्वरूप जनजीवन गरीबी के उत्पीड़न से बच सका । कल्पना कीजिए, यदि उस युग में कृषि एवं उद्योग के रूप में अपेक्षित साधन-वृद्धि न की गई होती, और जनसंख्या में निरन्तर वृद्धि का अनुपात तीव्रगति से बढ़ता ही रहता, तो क्या परिवार नियोजन जैसी किसी उपयुक्त व्यवस्था की ओर ध्यान नहीं जाता? क्या तब नाना प्रकार के अभावों से त्रस्त कीड़े की तरह कुलबुलाती जिन्दगी जीने को जनसंख्या दिनानुदिन बढ़ाते जाते और कोई ठीक समाधान नहीं निकालते ? मेरा विश्वास है कि यदि जीवन की उपभोग्य-वस्तुएं ज्यों की त्यों सीमित बनी रहतीं और जनसंख्या बढ़ती ही जाती, तो अहिंसा के आधार पर सामाजिक विकास की संभावनाएँ मूलतः क्षीण ही हो जाती।
वर्तमान परिस्थितियों के संदर्भ में विचार करने पर ऐसा कुछ महसूस होता है कि निकट भविष्य में अभी यह संभव नहीं कि औद्योगिक विकास का जनसंख्यावृद्धि के साथ आसानी से तालमेल बैठ सकेगा। फिर क्या जनता इसी प्रकार अभावों से प्रताड़ित, भूखी, नंगी, दरिद्र, रुग्ण एवं अशांत स्थिति में जिन्दगी की विषम घड़ियाँ काटती रहेगी ? क्या यह अभाव मनुष्य को एक दिन छीना-झपटी, संघर्ष, हिंसा एवं विद्रोह के लिए मजबूर नहीं कर देगा ? जब समाज में खाने वाले अधिक होंगे और
खाद्य-पदार्थ कम होंगे; जब रहने वाले अधिक होंगे और रहने योग्य आवास कम होंगे; Jain Education International For Private & Personal Use Only
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