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________________ ३६८ अहिंसा-दर्शन हिंसा के परित्याग और अहिंसा के संरक्षण के लिए हमें सांस्कृतिक क्षेत्र के इन विभिन्न प्रतीकों पर गहराई से चिन्तन करना चाहिए । अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में परिवार नियोजन माना गया है कि जीवन की मूल प्रवृत्ति सुखैषणा है । सुखैषणा ने ही अहिंसा के विकास का मार्ग प्रशस्त किया है । जीवदया का दूसरा नाम, जो सुखैषणा की आधारभित्ति है, अहिंसा है। प्राणिमात्र का परस्पर सम्बद्ध हो कर कल्याणमार्ग पर अग्रसर होना, जिसमें अपने पराये की द्वैत-भावना एकत्व-भाव में विलय हो कर उदात्त रूप ग्रहण करती है, अहिंसा का एकमात्र शाश्वत मार्ग है । अहिंसादर्शन के महान्, चितक तीर्थंकर महावीर ने तो प्राणियों की इसी मूल भावना को अहिंसा का मुख्य हेतु माना है, और कहा है- "सव्वे जीवा सुहसाया दुहपडिफूला।"-समस्त जीवजगत् को सुख-शांति प्रिय है, दुःख अप्रिय है, इसलिये किसी को कष्ट नहीं देना चाहिए। "सव्वे अक्कंत दुक्खाय, अओ सव्वे अहिंसिया।"--दुःख सब प्राणियों को अप्रिय है, इस कारण किसी की हिंसा नहीं करनी चाहिए । चिंतन का यह स्वर स्पष्ट कर देता है कि अहिंसा का आदर्श जन-जीवन की पीड़ा एवं व्यथा को कम करना तथा सुख-शान्ति की व्यवस्था को स्थिर रखना है। पीड़ा और व्यथा से चेतना उद्वेलित होती है, वह क्ष ब्ध एवं अशांत रहती है । अशांति की स्थिति में मन स्थिर नहीं रहता, और बिना स्थिरता के मानवचेतना का आध्यात्मिक विकास कथमपि संभव नहीं। आध्यात्मिक विकास अहिंसा का चरम आदर्श है । कहने का तात्पर्य यह है कि अहिंसा के चरम आदर्श को प्राप्त करने के लिए, जीवन में पीड़ा की निवृत्ति एवं सुख-शांति की व्यवस्था का स्थिर होना, अत्यन्त आवश्यक है। मानव-जाति का इतिहास इसका साक्षी है कि सुखशांति की स्थिरता की स्थिति में ही अहिंसा एवं नैतिकता का विकास-विस्तार हुआ है । कारण, मानवमन जब अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की संतुष्टि सहजरूप में पाता रहता है, तो उसे अनैतिक क्रियाओं का सहारा नहीं लेना पड़ता, उसकी जरूरत ही वह महसूस नहीं करता । अभाव की स्थिति में ही नानाविध असंगतियाँ एवं आचारहीनताएँ उभरती हैं। इन असंगतियों एवं आचारहीनताओं का आधारभूत एक और कारण है और वह है-मानवमन के असंयम का नाना कुरूपताओं के रूप में प्रस्फुटन । मानवमन का असंतुलित हो जाना, मानव का आत्मसंयम को खो देना ही अनेकानेक विषमताओं एवं समस्याओं का जनक है। कारण, आत्मसंयम के खो देने से ही मनुष्य का मन अभद्र कामनाओं, सांसारिक विषय-भोगों की ओर द्रुतगति से भागने लगता है । और, यह द्रुतगति की दौड़ सीमित आय की रेखा को छलांग कर वहाँ तक पहुंच जाती है, जहाँ अभावों का अखण्ड राज्य होता है । मन की यही तृष्णा, ऐच्छिक सुख की यही अनियन्त्रित लालसा, मानव को सहज सुख के सोपान से विचलित करती रहती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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