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गोरक्षा का प्रश्न और अहिंसा
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अहिंसा और संस्कृति की रक्षा के लिये हमें तामसिक एवं राजसिक मार्ग नहीं, किन्तु सात्विक मार्ग अपनाना चाहिए । शासन का भी आश्रय लें तो उसका रूप भी सात्विक ही होना चाहिये । अहिंसा या किसी भी अन्य धर्म एवं सिद्धान्त का प्रचार कभी भी भय, प्रलोमन, छलछद्मों और प्रपचों से नहीं, सात्विक पद्धतियों से होता है, हृदय के विश्वास और संस्कार बदलने से होता है। जीवन का परिवर्तन आगे की भूमिका है। सबसे पहले दृष्टिपरिवर्तन की भूमिका पर हमें चलना है। हमारी दृष्टि, विचार करने का तरीका जब शुद्ध और पवित्र हो जाता है, हृदय में विवेक जग जाता है तो फिर जीवन पवित्र और उज्ज्वल होने में कोई समय नहीं लगता। सबसे मुख्य प्रश्न है-हमारी दृष्टि चैतन्यप्रधान हो, जड़प्रधान नहीं। हमारी विचारक्रान्ति का मूल केन्द्र चैतन्य होना चाहिए ; जड़ नहीं। शुद्ध तर्कप्रधान चिन्तन, समस्या का सही और स्थायी समाधान करता है। केवल भावनाप्रधान चिन्तन हमें सही लक्ष्य की ओर नहीं ले जा सकता। जब-जब तर्क को छोड़ कर केवल भावना एवं कल्पना का अधार लिया है, हम भटके हैं और बुरी तरह भटके हैं । तर्कहीन भावना अन्धविश्वास को जन्म देती हैं और अन्ध-विश्वास सत्य को धूमिल करता है। सत्य की उपासना के लिए चैतन्यप्रधान तर्कदृष्टि ही अपेक्षित है।
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