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________________ अहिंसा-दर्शन अहिंसा की प्रतिष्ठा नहीं करवाई जा सकती । अहिंसा हृदय-परिवर्तन करती है, मजबूर नहीं करती । वह सात्त्विक आचार और प्रचार के पक्ष में है, अन्य किसी तोड़-फोड़ के पक्ष में नहीं । भगवान् महावीर और तथागत बुद्ध ने अहिंसा और करुणा के प्रचार के लिए कभी भी शासन का द्वार नहीं खटखटाया। बड़े-बड़े सम्राट् उनके भक्त थे, उनके चरणों में बैठ कर उपदेश सुनते थे, पर कभी भी उन्होंने किसी सम्राट को राज्य में हिंसा बन्द करने के लिए विवश नहीं किया। उन्होंने जनता का हृदय-परिवर्तन किया, वातावरण बदला, हिंसकों की भावनाएँ बदलीं । . जैन इतिहास में मगधसम्राट श्रेणिक को महावीर का परम भक्त बताया गया है। उसी मगध में कालसोकरिक कसाई रहता था, जो पाँच सौ भैंसे प्रतिदिन मारता था । सम्राट ने एक बार उसे पशुहिंसा से विरत करने के लिए कारागृह में बन्द कर दिया। किन्तु यहाँ बैठा भी वह भावना से भैंसे मारता चला गया। भगवान् महावीर ने मगधेश से कहा--"सम्राट, इस प्रकार बलपूर्वक उसकी हिंसा नहीं छुड़ाई जा सकती। हृदय बदले बिना अहिंसा की प्रतिष्ठा नहीं हो सकती। जैन इतिहास बताता है कि मगध के महामन्त्री अभय ने आखिर कालसौकरिक के पुत्र को अपना मित्र बनाया और धीरे-धीरे उसके संस्कार बदल कर उसे अहिंसा के मार्ग पर गतिशील किया। पूरा जैनवाङ्मय पढ़ जाने के बाद भी आपको कहीं पर यह नहीं मिलेगा कि महावीर ने कहीं किसी को हिंसा आदि का त्याग करने के लिए विवश किया हो। उनकी साधना इच्छायोग की साधना थी। सात्विक प्रेरणा जगाने भर का उद्देश्य उनके समक्ष था । सत्प्रेरणा जगी, हृदय प्रबुद्ध हुआ कि व्यक्ति स्वयं अहिंसा, सत्य आदि के मार्ग पर चल पड़ता था। घर-घर में संसद् है ? । मैं आपसे कह रहा था कि गौ-रक्षा के लिये शासन को प्रभावित करने की अपेक्षा समाज को प्रभावित करना अधिक महत्त्वपूर्ण है। यदि समाज को छोड़ कर केवल शासन के माध्यम से ही हम अहिंसा की प्रतिष्ठा करवाना चाहते हैं, तो कल हिंसक शक्तियाँ भी शासन को प्रभावित करके अहिंसा की जड़े उखाड़ने का प्रयत्न कर सकती हैं । तब हम क्या करेंगे ? शासनतन्त्र अस्थायी है, वह बदलता रहता है, कभी किसी के हाथों में तो कभी किसी के हाथों में ! ___ संसद्भवन के समक्ष उग्र प्रदर्शन करके, राज्यव्यवस्था में विक्षेप डाल कर और जन-धन की हानि करके हम अपनी बात मनवाना चाहें, यह गलत है । धर्म कभी शासन का द्वार नहीं खटखटाता है । हमारी संसद् उस पार्लियामेंट भवन में नहीं रहती, वह घर-घर में है । आप घर-घर में जाइए । अधिकारियों के घर पर, संसद्सदस्यों के घर पर जाईए, उन्हें और उनके परिवार को अपनी बात समझाइए, उनके विचार बदलिए और फिर आप अपने उद्देश्य की सिद्धि करने का प्रयत्न कीजिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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