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अहिंसा-दर्शन
कमाई जाती हो, वह संकल्पी हिंसा है, क्योंकि उनमें दूसरों के आनन्द पर डाका डाला जाता है, इससे अपने और दूसरे, दोनों के आनन्द का खात्मा हो जाता है । निष्कर्ष यह है कि जो सात्त्विक है, जो रोटी अल्पारम्भ से प्राप्त हुई है, जिसमें स्वयं का श्रम लगा है, वही रोटी और रोजी श्रावक जीवन की अहिंसा की मर्यादा में आती है । भगवान् ऋषभदेव ने गृहस्थधर्म की मर्यादा को ले कर जो भी धंधे जनता को सिखाए, वे आर्यकर्म थे, अहिंसा की दिशा में आगे बढ़ाने वाले थे और स्वपरहितकारक थे । इसलिए हमें किसी भी रोजी और रोटी की अच्छाई का निर्णय उपर्युक्त अहिंसा की कसौटी से करना चाहिए।
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