SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४२ अहिंसा-दर्शन सही मान लिया गया है। पुण्य और पाप को जीवन की उपयोगिता से और उपयोगिताओं की पूरक आवश्यकताओं से तोलना चाहिए। जीवन की किसी भी अनिवार्य आवश्यकता की परिपूर्ति हीरों-जवाहरात की विद्यमानता से नहीं हो सकती । चाँदी सोने की 'रोटियाँ' खा कर, मोतियों का 'शाक' बना कर और हीरे का 'पानी' पी कर कोई अपने प्राणों की रक्षा नहीं कर सकता । प्राणों की रक्षा तो केवल अन्न ही कर सकता है। अमीर हो या गरीब, दोनों को ही अन्न की सीधी-सच्ची राह पर चलना होगा । आखिर, जीवन तो जीवन की ही राह पर चलेगा। इस सम्बन्ध में एक आचार्य ने ठीक ही कहा है। चमकते रत्न इसका हिन्दी रूपान्तर इस प्रकार है "भूमंडल में तीन रत्न हैं, पानी-अन्न-सुभाषित वाणी । पत्थर के टुकड़ों में करते, रत्न-कल्पना पामर प्राणी ।।" ६ वास्तव में इस पृथ्वी पर तीन ही रत्न चमक रहे हैं-जल, अन्न और सुभाषित वाणी। नदी, तालाब या नहर में जो जल बह रहा है, उसकी एक-एक बूंद की सुलना मोतियों और हीरों से भी नहीं की जा सकती। यदि कोई तोलता है तो वह गलती करता है । अन्न का एक-एक दाना चमकता हुआ रत्न है, जिसकी रोशनी हीरों की चमक को भी मात करती है। तीसरा रत्न है-सुभाषित वाणी; अर्थात्-मीठा बोल ; ऐसा बोल, जो लगे हुए घाव पर मरहम का काम करे, प्रेम का उपहार अर्पण कर दे ; बेगानों को अपना बना दे और जब मुंह से निकले तो ऐसा लगे कि मानों फूल झर रहे हैं, ऐसा सुभाषित भी एक रत्न है । जो मूढ़ हैं-यहाँ आचार्य 'मूढ़' शब्द का प्रयोग कर रहे हैं तो मुझे भी करना पड़ रहा है; अर्थात्-अज्ञानी हैं, वे पत्थर के टुकड़ों में रत्नों की कल्पना करते हैं । किन्तु पूर्वोक्त तीन रत्न ही वास्तविक रत्न हैं, और ये चमकते हुए पत्थर के टुकड़े उनके समकक्ष कहाँ ? घर में धान्य रामायण-काल की एक घटना है, जिसमें बहुत ही सुन्दर तथ्य का वर्णन है । ७ जब रामचन्द्रजी चौदह वर्ष का वनवास समाप्त कर रावण-वध के बाद सीता तथा वानरों सहित अयोध्या वापस आए तो परिवार के लोग तथा राज्य के बड़े-बड़े सेठ साहूकार उनके स्वागत के लिए दौड़ पड़े । हजारों की संख्या में जनता अभिनन्दन के ६ "पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि, जलमन्न सुभाषितम् । __ मूढः पाषाण-खण्डेषु रत्न-संज्ञा विधीयते ॥" ७ देखिए उपदेश-तरंगिणी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy