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अहिंसा-दर्शन
से प्रेरित हो कर उसे भूखे को खाने के लिए दे देता है । भूखा आदमी उसे खाता है और उसके प्राण बच जाते हैं । अब प्रश्न यह है कि उस कंदमूल देने वाले को एकान्त पाप होता है, या कुछ पुण्य भी होता है ? इस प्रश्न का क्या उत्तर हो सकता है ?
कुछ व्यक्तियों ने तो यह निर्णय कर रखा है कि दया से प्रेरित हो कर भूखे के प्राण बचाने में भी एकान्त पाप होता है। उनकी धर्म-पुस्तकों ने और आचार्यों की वाणी ने एकान्त पाप का फतवा दे रखा है । क्योंकि एक ओर एक जीव है और दूसरी ओर एक आलू में नहीं, उसके एक टुकड़े में भी नहीं, सुई के अग्रभाग पर समा जाने वाले जरा से आलू के कण में भी अनन्तजीव होते हैं और जब वह खाने के लिए दे दिया जाता है तो उन सभी की हिंसा हो जाती है । इस प्रकार एक जीव को बचाने के लिए अनन्त जीवों की हिंसा की गई है। उनके विचार से अनन्त जीवों की हिंसा तो पाप है ही, साथ ही उनकी हिंसा करके एक आदमी को बचा लेना भी पाप ही है और बचाने वाले की दया-भावना भी पाप है । इस प्रकार उस भूख से मरते को बचा लेना भी पाप ही है । परन्तु अन्य लोगों का विचार क्या हो सकता है ? मनुष्य के प्राणों की रक्षा करना तो वे पाप नहीं मानते । अब रही बात दया करने की जो पुनीत भावना हृदय में उत्पन्न होती है उसे भी पाप नहीं मानते। ऐसी स्थिति में वे उस प्रश्न का क्या उत्तर देते हैं ? उनके सामने यह एक विकट प्रश्न है, जिसका उन्हें ही निर्णय करना है। संख्या नहीं, भावों को नापिए
संभव है, इस प्रश्न का उत्तर देने में टालमटोल हो। अतः दूसरे ढंग से यों देखा जा सकता है। मान लें, एक प्यासा आदमी प्यास से मर रहा है और किसी उदारमना ने उसे पानी पिला दिया। पानी की एक बूंद में असंख्य जीव हैं, अस्तु, एक गिलास पानी पिला दिया तो क्या हुआ ! एकान्त पाप हुआ या कुछ पुण्य भी हुआ पानी पिलाने से बचा तो केवल एक व्यक्ति, और मरे असंख्य जीव । इस प्रश्न का उत्तर संभवतः इस प्रकार दिया जा सकता हैं—यद्यपि पानी पिलाने से पाप हुआ है किन्तु पुण्य भी हुआ है। और वह पुण्य-पाप की अपेक्षा अधिक है। ठीक है, जो तथ्य हो उसे स्वीकार कर लेना ही बुद्धिमत्ता है, इस निर्णय से यह फलित हुआ कि जीवों की संख्या के आधार पर पुण्य-पाप का निर्णय नहीं हो सकता । संख्या अपने में सही कसौटी नहीं है । इस कसौटी को पानी पिलाने में एकान्त पाप न मानकर अस्वीकार कर दिया गया है। पुण्य-पाप को परखने के लिए दूसरी कसौटी जो अपनायी गई है, वह है कर्तव्य की भावना।
वस्तुतः असंख्य एक बहुत बड़ी संख्या है। असंख्य के अन्तिम अंश में यदि एक और जोड़ दिया जाए तो वह संख्या अनन्त हो जाती है। तो जहाँ बहुत असंख्य जीव है, वहाँ अनन्त के लगभग जीव हो जाएँगे । और जहाँ पानी है, वहाँ वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रस आदि इसी प्रकार के जीव भी होते हैं । इस दृष्टि से जीवों की संख्या में भी अत्यधिक वृद्धि हो जाती है ।
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