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________________ ३१४ अहिंसा-दर्शन काव्य का रस बड़ा मीठा है। जब कविता-पाठ होता है तो लोग मन्त्र-मुग्ध हो कर जम जाते हैं और घण्टों तक जमे रहते हैं, अमृत-पान जैसा आनन्द भी अनुभव करते हैं । किन्तु प्यास से व्याकुल यदि कोई प्यासा, वहाँ आए और पानी माँगे, तब उससे यह कहा जाय कि-'माई, यहाँ पानी नहीं है । यहाँ काव्य है, जोकि बहुत ही मधुर है, उसमें अमृत जैसा मधुर रस है। इसी को पी कर अपनी प्यास बुझा लो ।' तो क्या पानी के प्यासे की प्यास, काव्य-रस से बुझ सकेगी ! क्या, वह काव्य का रस पी भी सकेगा ? नहीं। __इसीलिए व्यावहारिक जीवन के सम्बन्ध में यथार्थवादी आचार्य कहते हैं कि जीवन-व्यापार की समस्याएँ न तो अलंकारों से सुलझ सकती हैं, न साहित्य से और न कविताओं से ही । उन्हें सुलझाने के लिए तो कोई दूसरा ही सही हल खोजना पड़ेगा। दो-चार दिन का भूखा एक आदमी आपके सामने आता है । वह आपसे चार कौर भोजन पाने की इच्छा रखता है और माँग करता है । आप उससे कहते हैं'भाई, इस समय धर्म का भोजन तो तैयार है । दो दिन हो गए हैं, तो दो दिन का उपवास और कर लो। अरे, रोटियों में क्या रखा है ? अभी खाओगे, अभी फिर भूख लग आएगी। अनादिकाल से खाते आ रहे हो और अनन्त-अनन्त सुमेरु पर्वतों के बराबर रोटियों के ढेर खा चुके हो । फिर भी तुम्हारी भूख नहीं मिटी तो अब चार कौर से क्या मिटने वाली है ? छोड़ो, इस पुद्गल की रोटी को । अब धर्म की रोटी ले लो, जिससे इस लोक की भी भूख बुझेगी और परलोक की भी भूख बुझ जाएगी।' क्या सच्चे धर्म की यही व्याख्या है ? यह धर्म का उपदेश है या उसका मजाक ? यह एक ऐसा विचार है, जिससे जनता के मन को साधा नहीं जा सकता, बल्कि उसके हृदय में काँटा चुभाया जाता है । क्या मानव-जीवन इस तरह चल सकेगा? इस प्रकार का कोरा आदर्शवादी दृष्टिकोण वास्तविक नहीं है। वह जीवन की मूलभूत और ठोस समस्याओं के साथ निष्ठुर उपहास करता है । वह, मर जाने के बाद तो स्वर्ग की बात कहता है, किन्तु जीवित रह कर इस संसार को स्वर्ग बनाने की बात कभी नहीं कहता । मरने के पश्चात् स्वर्ग में पहुँचने पर ६४ मन का मोती मिलने की बात तो कहता है, परन्तु जिन्दा रहने के लिए दो माशा अन्न के दाने पाने की राह नहीं दिखलाता । वह स्वर्ग का ढिंढोरा तो पीट सकता है, किन्तु जिस मृत-प्रायः प्राणी के सामने ढिंढोरा पीटा जा रहा है, उसे जीवित रहने के लिए जीवन की कला नहीं सिखलाता । इस प्रकार का हवाई दृष्टिकोण अपनाने वाला धर्म, चाहे वह कोई भी हो, जनता के काम का नहीं है । आज की दुनिया को ऐसे निस्सार धर्म की आवश्यकता भी नहीं है। १ "बुभुक्षितैयाकरणं न भुज्यते, पिपासितः काव्यरसो न पीयते ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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