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________________ २७ | मानव जीवन और कृषि उद्योग जैन-धर्म अतिविशाल और प्राचीन धर्म है । उस पर हमें गर्व है कि उसने हजारों ही नहीं, लाखों और करोड़ों मानवों का पथ-प्रदर्शन किया है। उसने जनता को जीवन की सच्ची राह बतलाई है । भूले-भटके अनगिनत पथिकों को जो गलत राह पर चल रहे थे, कहा है कि- तुम जिस राह पर चल रहे हो, वह जीवन की सच्ची राह नहीं है, बल्कि अन्ततः उस सत्य की सीधी राह पर चलने से ही तुम्हारा विकास हो सकेगा और तुम अपनी मंजिल तक पहुँच सकोगे । आदर्श या यथार्थ ? तथाकथित जैन धर्म और उसकी सर्वविदित महत्ता के सम्बन्ध में आज जनता के मन में एक भ्रामक प्रश्न चल रहा है कि यह केवल आदर्शवादी है या यथार्थवादी भी है ? यह आदर्शों के सुनील आकाश में ही उड़ता है, या जीवन-व्यवहार की सत्य भूमि पर भी कभी उतरता है ? अनेक बार हम देखते हैं कि आदर्श, आदर्श बन कर रह जाते हैं और ऊँचाइयाँ, ऊँचाइयाँ ही बनी रहती हैं । वे जीवन की गहराइयों को और उसकी समस्याओं को हल करने वाले वास्तविक समाधान की भूमिका पर नहीं उतरतीं । कुछ सिद्धान्त ऐसे होते हैं, जो प्रारम्भ में तो बहुत ऊँची उड़ान भरते हैं और आकाश में उड़ते दिखलाई देते हैं, किन्तु व्यावहारिक जीवन के सुनिश्चित धरातल पर नहीं उतरते, क्योंकि उनमें जनता की समस्याओं का उचित समाधान करने की क्षमता नहीं होती । इसके विपरीत कुछ सिद्धान्त यथार्थवादी होते हैं । वे जनता की आवश्यकताओं का, समस्याओं का सीधे ढंग से समाधान करते हैं। वर्तमान में बच्चों, बूढ़ों, युवकों और महिलाओं की क्या समस्याएं हैं ? भूखी नंगी जनता की क्या समस्याएं हैं ? इन सब पर गहराई में उतर कर विचार करना ही उनको सैद्धान्तिक यथार्थता का सर्वोत्कृष्ट लक्ष्य है । इस तरह प्रश्न यह सामने आता है कि समाज फिर किस पृष्ठ भूमि पर टिक सकेगा ? वह कोरे कथोपकथन और कागजी आदर्शवाद पर जीवित नहीं रह सकता । जब उसे व्यावहारिक यथार्थवाद मिलेगा, तभी जिन्दा रहेगा ! इस सम्बन्ध में एक आचार्य ने भी कहा है- " एक आदमी भूखा है और भूख के ताप से छटपटा रहा है । ऐसी स्थिति में व्याकरण के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों से उसका पेट नहीं भरेगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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