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________________ अहिंसा-दर्शन अर्थात्- “पन्द्रह कर्मादान जानने योग्य अवश्य हैं, किन्तु आचरण करने योग्य नहीं हैं ।" वस्तुतः महारंभ एवं कर्मादान में मर्यादा नहीं होती और यदि खेती भी कर्मादान में है, महारंभ में है, तो उसकी भी मर्यादा नहीं हो सकती। भगवतीसूत्र के अनुसार पन्द्रह कर्मादानों का त्याग तीन करण से किया जाता है। उनमें आंशिक त्याग या मर्यादा की गुंजाइश ही कहाँ है ? अतएव जहाँ कर्मादान होगा, वहाँ श्रावकत्व स्थिर नहीं रह सकता । तब कोई उन हजारों खेती करने वाले भाइयों से कह नहीं सकता कि आप श्रावक नहीं है । संभव नहीं इस प्रकार खेती-वाड़ी को महारंभ भी कहना, कर्मादान भी समझना और फिर उसके साथ अणुव्रती श्रावकत्व भी कायम रखना, कदापि सम्भव नहीं है। यदि कर्मादान की कोई सम्भव मर्यादा हो सकती है तब तो कसाईखाने चलाने की भी मर्यादा निर्धारित की जा सकती है? एक कसाई किसी जैन-साधु के पास आता है और कहता है कि मैं सौ कसाईखाने चला रहा हूँ, उन्हें ही चलाऊँगा, मर्यादा निर्धारित करा दीजिए । तो क्या वह कसाई अणुव्रतधारी श्रावक की कोटि में आ सकेगा ? जिस प्रकार कसाईखाने की मर्यादा करने पर भी श्रावकत्व नहीं आ सकता, क्योंकि कसाईखाना चलाना महारंभ है, उसी प्रकार खेती करना भी यदि महारंभ है, कर्मादान है, तो उसकी मर्यादा करने पर भी श्रावकत्व नहीं आना चाहिए। जबकि खेती करने वाले श्रावक होते हैं तो फिर खेती को कर्मादान और महारंभ किस प्रकार कहा जा सकता है ? __ इस कथन से यह भी भलीभाँति समझा जा सकता है कि जैन-साधु कृषि के सम्बन्ध में क्या कहते हैं ? वे कृषि का समर्थन नहीं करते, किन्तु इस बात का समर्थन करते हैं कि खेती की गिनती कर्मादानों में नहीं है, अत: जो खेती करता है वह श्रावक नहीं रह सकता, यह धारणा बिलकुल गलत और निराधार है । खेती अनर्थदण्ड या कर्मादान नहीं है __'फोडीकम्मे' नामक कर्मादान का आशय क्या है ? यह पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है। इस विषय में एक प्रश्न है-कोई मनुष्य स्वयं खेती करता है और अपने खेत में कुआ भी खुदवाता है। कुआ खुदवाने के लिए उसे सुरंग लगवानी पड़ती है । तो क्या यह सुरंग लगवाना 'फोडीकम्मे' है ? इसका उत्तर हैनहीं ! उसका सुरंग लगवाना 'फोडीकम्मे' नहीं है । वह खेती की सिंचाई के लिए या जनता के कल्याणार्थ पानी उपलब्ध करने के लिए कुआ बनवाता है । उसने व्याव ३ "पण्णरसकम्मादाणाइं जाणियव्वाइं, न समायरियव्वाइं।" ४ देखिए, भगवती सूत्र ८, ५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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