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________________ अहिंसा - वर्शन कल्याण की ही पुण्यमयी भावना थी । ऐसी स्थिति में जो लोग उनके दान को एकान्त पाप और कृषि को महारम्भ कहते हैं, उन्हें गहरा विचार करना होगा । महारम्भ का उपदेष्टा महापापी क्यों नहीं ? ३०६ उपदेश देने वाला है । इस सम्बन्ध में एक बात और भी ध्यान में रखनी चाहिए, जो कार्य महारम्भ या महापाप का होता है, उसका उपदेश करने वाला भी महारम्भी और महापापी होता है । एक मांस खाने वाला है, और दूसरा माँस खाने का तो खाने वाला ही नहीं, उपदेश देने वाला भी महापापी है । अत: जब खेती करने वाला महापापी है, तो उसका उपदेश देने वाला भी महापापी क्यों नहीं होगा ? बल्कि स्वयं मांस खाने की तो कोई सीमा हो सकती है, पर उपदेश की कोई सीमा नहीं होती । उपदेशक के उपदेश से न जाने कितने लोग, कहाँ-कहाँ और कब तक मांस खाएँगे ! अतएव पापोपदेश देने वाला, पाप करने वाले से भी बड़ा पापी होता है । क्या कभी ऐसा माना जा सकता है कि भगवान् 'महारम्भी' और 'महापापी' थे ? यदि ऐसा नहीं माना जा सकता है तो निर्णय होने में तनिक भी देर नहीं लगेगी। यदि किसी का अन्त:करण स्वच्छ है और उसकी आत्मा पक्षपात से ग्रस्त नहीं है तो उसे यह समझने में देर नहीं लगनी चाहिए कि -- “ शुद्ध जनहित के लिए भगवान् ने जो प्रवृत्ति की है, उसमें महापाप या एकान्त पाप कदापि नहीं हो सकता । " अनार्य से आर्य प्रायः सर्वत्र भगवान् ऋषभदेव की महान् करुणा, दया और प्रेम ही मिला है । जो युगलिए आपस में लड़ रहे थे, अनार्यों के रूप परिवर्तित हो रहे थे और पशुओं को मार कर खाने की ओर अग्रसर हो रहे थे, उन्हें भगवान् ने कृषि की शिक्षा दी और इस प्रकार उन्हें महारम्भ से अल्पारम्भ की ओर लाए । अकर्म भूमि में सभी लोग युगलिया थे । उस समय कोई अनार्य नहीं था । फिर आर्य और अनार्य का यह भेद क्यों हो गया ? कुछ देश अनार्य क्यों हो गए ? कोई कह सकता है, आर्य-भूमि में रहने के कारण लोग आर्य हो गए और अनार्य - भूमि में रहने वाले अनार्य रह गए । परन्तु यह समाधान युक्ति-संगत नहीं है । जो लोग भूमि में भी आर्यत्व और अनार्यत्व की कल्पना करते हैं, उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं है । वास्तविक बात तो यह है कि -- जिनको जीवन के अच्छे साधन मिल गए, जिनके पास कृषि का सन्देश पहुँच गया, और जिन्होंने उसे ग्रहण कर लिया, वे आर्य रहे । और जहाँ यह सन्देश नहीं पहुँचा, वहाँ भूख से पीड़ित लोगों ने पशु मार कर खाना आरम्भ कर दिया, मांस खा कर अपने पेट का गड्ढा भरने लगे, फलतः वे अनार्य होते गए । भगवान् ने कृषि की शिक्षा आर्य बनाने के लिए दी थी, या अनार्य बनाने के लिए ? यदि अनार्य बनाने के लिए ही खेती सिखाई, तो ऐसी क्या मजबूरी थी कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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