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________________ अहिंसा और कृषि ३०५ विवेकबुद्धि से सोचना यह चाहिए कि यदि वे राजा बने तो किस उद्देश्य से बने ? क्या दुनिया का आनन्द लूटने के लिए, भोग-वासना में लिप्त होने के लिए, और सिंहासन के राजसी सुख का आस्वादन करने के लिए राजा बने ? अथवा प्रजा में फैली हुई अव्यवस्था को दूर करने के लिए, नीति-मर्यादा को कायम करने के लिए, और प्रजा में फैली हुई कुरीतियों का उन्मूलन करने के लिए ही राजा बने ? अपनी मनोभावना _ आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है कि-जैसे बड़ी मछली छोटी मछलियों को निगल जाती हैं, उसी प्रकार कभी बड़े आदमी भी अपनी स्वार्थ-क्षुधा में छोटों को निगल जाते हैं। प्रश्न आता है, क्या तीर्थंकर भी मनुष्यसमाज की इस विषमता को दूर करने के लिए राजा नहीं बने ? राज-सिंहासन को स्वीकार करने में जो धार्मिक दृष्टि होती है, उसे तो कोई ध्यान में नहीं लाता और अपनी मनो-भावनाओं के अनुरूप यह कल्पना कर बैठते हैं कि वे राजा बने तो केवल भोग-विलास की परिपूर्ति के लिए। उन लोकोत्तर महापुरुषों का राजदंड ग्रहण करना, वर्तमानयुग के राजा-महाराजाओं से सर्वथा भिन्न था, अर्थात्-वे प्रजा के शोषक नहीं, पोषक थे। शासक नहीं, सेवक थे !! उन्होंने सिंहासन को स्वीकार करके प्रजा में होने वाले अत्याचार और अन्याय का प्रतिकार किया, बड़ों के द्वारा होने वाले छोटे आदमियों के अनैतिक शोषण का अन्त किया और जनता की अनेक प्रकार से सेवाएँ की । इन सब बातों पर क्यों कोई व्यक्ति धूल डालने का दुस्साहस करता है ? इस प्रकार अपने दृष्टिकोण को साफ करना होगा । भगवान् ने जब दान दिया, तब उनमें तीन ज्ञान थे, चौथा ज्ञान नहीं था । और जब कृषि का उपदेश दिया, तब भी तीन ही ज्ञान थे। इन पवित्र ज्ञानों के होते हुए वे कृषि या दान के रूप में क्रोध, मान, माया या लोभ के वश प्रवृत्ति नहीं कर सकते थे। उन्होंने इस ओर जो प्रवृत्ति की है, उसमें उनकी अपनी निजी वासना-पूर्ति का कोई लक्ष्य नहीं था, केवल प्रजा के २ शिष्टानुग्रहाय, दुष्टनिग्रहाय, धर्मस्थितिसंग्रहाय च, ते च राज्यस्थितिश्रिया सम्यक प्रवर्तमानाः क्रमेण परेषां महापुरुषमार्गोपदेशकतया चौर्यादिव्यसननिवर्त्तनतो नारकातिथेयानिवारकतया ऐहिकामुष्मिकसुख-साधकतया च प्रशस्ता एवेति । महापुरुषप्रवृत्तिरपि सर्वत्र परार्थत्वव्याप्ता बहुगुणाल्प-दोषकार्यकारणविचारणापूर्विकैवेति । .... 'स्थानाङ्गपञ्चमाध्ययनेऽपि-'धम्मं च णं चरमाणस्स पंच निस्सा ठाणा पण्णत्ता, तंजहा-छक्काया १ गणे २ राया ३ गाहावई ४ शरीर ५ मित्याद्यालापकवृत्तौ राज्ञो निश्रामाश्रित्य राजा नरपतिस्तस्य धर्मसहायकत्वं दुष्टेभ्य साधुरक्षणादित्युक्तमस्तीति परम-करुणापरीतचेतसः परमधर्मप्रवर्तकस्य ज्ञानत्रितययुक्तस्य भगवतो राजधर्मप्रवर्तकत्वे न कापि अनौचिती चेतसि चिन्तनीया । -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका, दूसरा वक्षस्कार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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