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________________ कृषि : अल्पारम्भ और आर्यकर्म है २६५ अभाव ही संघर्ष का मूल कारण ___ कृषि के सम्बन्ध में विचार करते समय भगवान् आदिनाथ को स्मरण रखना चाहिए । पहले कल्प-वृक्षों से युगलियों का निर्वाह हो जाता था। उस समय उनके सामने अन्न का कोई संकट नहीं था । भले ही युगलिया तीन पल्योपम की आयु वाले हों; परन्तु अन्तिम समय में ही उनके सन्तान होती थी ; अर्थात्-पहला जोड़ा जब विदा होने लगता, तब उधर दूसरा जोड़ा उत्पन्न होता था। इसलिए उनकी संख्या में कोई विशेष अन्तर नहीं होता था। परन्तु भगवान् ऋषभदेव के समय में कल्प-वृक्ष, जो उत्पादन के एकमात्र साधन थे, घटने लगे और जन-संख्या बढ़ने लगी। अतएव कल्पवृक्षों से उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधा उपस्थित हो गई । जहाँ उत्पादन कम है और खाने वाले अधिक हो जाते हैं, वहाँ संघर्ष अनिवार्य है। ___ नल पर पानी भरने के लिए तू-तू, मैं-मैं क्यों होती है ? कारण यह है कि पानी कम आता है, और साथ ही नल के बन्द हो जाने का डर रहता है। इसीलिए आपस में लड़ाई-झगड़े होते हैं और कभी-कभी भयंकर दुर्घटना का रूप धारण कर लेते हैं । एक चाहता है, मैं पहले भर लू और दूसरा चाहता है कि सबसे पहले मैं भरू । परन्तु जल से परिपूर्ण कुओं पर ऐसा नहीं होता । वहाँ जितना चाहिए उतना पानी मिल सकता है, अतएव संघर्ष तथा दुर्घटना की स्थिति पैदा नहीं होती। जहाँ अभाव होता है और भरण-पोषण के साधन पर्याप्त नहीं होते, वहीं संघर्ष तथा दुर्घटनाएँ हुआ करती हैं । परन्तु जहाँ उत्पादन अधिक होता है और उपभोक्ताओं की संख्या कम होती है, वहाँ अभावमूलक संघर्ष नहीं होता, न वहाँ विषमता ही प्रदर्शित होती है और न संग्रहवृत्ति ही पनपती है । अहिंसा की राह सोचना यह है कि भूखों मरते और संकट में पड़े हुए युगलियों को भगवान् आदिनाथ ने जो खेती करना और दूसरे धन्धे करना सिखाया, वह क्या था ? उत्पादन की कला सिखाकर उन्होंने हिंसा को बढ़ाया, या अहिंसा की राह बतलाई ? उन्होंने ऐसा करके जीवन-दान दिया, या पाप-कर्म किया ? इस सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि केवल दान देना ही अहिंसा नहीं है, परन्तु यदि कोई रचनात्मक मनोवृत्ति वाला व्यक्ति समाज के कल्याण तथा राष्ट्र की समृद्धि के लिए उत्पादन में वृद्धि करता है, समाज और राष्ट्र की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्रिय सहयोग देता है, भूख से तड़पते त्रस्त व्यक्तियों के दुःखदर्द को मिटाने के लिए उत्पादन की कला बताता है, तो वह भी एक प्रकार का दान है और वह दान भी अहिंसा का ही एक सुनिश्चित मार्ग है ! ३ कलाद्युपायेन प्राप्तसुखवृत्तिकस्य चौर्यादिव्यसनासक्तिरपि न स्यात् । -जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति टीका, २ वक्षस्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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