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________________ २६४ अहिंसा-दर्शन कारण उसे महारंभी की उपाधि से भी विभूषित किया है। भला, यह विपरीत भाव कैसे युक्तिसंगत कहलाएगा। गृहस्थ-जीवन में 'आनन्द' ने जो किया, वह एक आदर्श था । 'आनन्द' जैसा उच्च एवं आदर्श जीवन व्यतीत करने वाला श्रावक महारंभ का कार्य नहीं कर सकता था। 'आनन्द' श्रावक-अवस्था में भी खेती करता था, इस बात को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । 'आनन्द' श्रावक था, अतएव अल्पारंभी था। फिर भी वह खेती करता था, इसका फलितार्थ यह है कि खेती श्रावक के लिए अनिवार्यतः वर्जनीय नहीं है, वह अल्पारंभ में ही है । विचार प्रवाह में यह भी कहा जा सकता है कि 'आनन्द' महारंभी था और कृषि कार्य उसके परिवार का पम्परागत धन्धा था। किन्तु श्रावक बनने के बाद उसने कृषि-योग्य भूमि की मर्यादा निर्धारित की और शेष का त्याग कर दिया। इस कथन का स्पष्ट अभिप्राय यह हुआ कि खेती महारंभ तो है, परन्तु उसकी मर्यादा की जा सकती है। परन्तु क्या कहीं महारंभ की भी मर्यादा हो सकती है ? अथवा महारंभ की मर्यादा करने के बाद भी क्या कोई अणुव्रती श्रावक की कोटि में गिना जा सकता है ? महारंभ की मर्यादा करने पर यदि श्रावक की कोटि प्राप्त की जा सकती है तो वध-शाला की मर्यादा करने वाला भी श्रावक की कोटि में आसानी से आ सकता है । यदि भगवान् महावीर के पास कोई व्यक्ति आ कर कहता—'प्रभो ! मैं सौ कसाईखाने चला रहा हूँ और अभी तक श्रावक की भूमिका में नहीं आ सका हूँ । अब मैं मर्यादा करना चाहता हूँ कि सौ से अधिक वध-शालाएँ नहीं चलाऊंगा। मुझे सौ से अधिक वध-शालाओं का त्याग करा दीजिए और अपने अणुव्रती श्रावक-संघ की सदस्यता प्रदान कीजिए।' तो क्या भगवान् उसे अपने अणुव्रती श्रावक-संघ के सदस्यों में परिगणित कर सकते थे ? कदापि नहीं। उस अवसर पर भगवान् यही कहते-अणुव्रती श्रावक का पद प्राप्त करने से पहले तुम्हें महारंभ का पूरी तरह त्याग करना होगा । तात्पर्य यह है कि वध-शाला, जुए के अड्डे, वेश्यालय या शराब की भट्टियाँ चला कर और उनकी कुछ मर्यादा बाँध कर यदि कोई अणुव्रती श्रावक का स्थान प्राप्त करना चाहे तो वह प्राप्त नहीं कर सकता । ऐसा होना कदापि सम्भव नहीं है। यदि किसी मांसाहारी या शिकारी गृहस्थ को मांसाहार या शिकार को छोड़ने का उपदेश दिया जाता है । किन्तु जब वह पूरी तरह छोड़ने को तैयार नहीं होता तो वृद्धि न करने की सलाह दी जाती है। परन्तु क्या इससे उसका गुणस्थान बदल जाता है ? एक हजार हरिण मारने वाला यदि पाँच-सौ हरिणों तक ही अपनी मर्यादा स्थापित कर ले, तो भले ही उसे कल्याण की धुंधली राह मिल जाती है, किन्तु इतने मात्र से उसको अणुव्रती श्रावक की भूमिका नहीं मिल सकती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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