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आर्य-कर्म और अनार्य-कर्म
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वहाँ आर्य-कर्मों के स्वरूप का निर्देशन करते हुए कुछ थोड़े से कर्म गिना कर अन्त में 'जे यावन्ने तहप्पगारा' कह कर सारा निचोड़ बतला दिया है । इसका सारांश यही है कि इस प्रकार के और भी कर्म हैं, जो आर्य-कर्म कहलाते हैं ।
कुम्भकार के धन्धे को भी वहाँ आर्य-कर्म बतलाया गया है। इससे आप फैसला कर सकते हैं कि कृषि कर्म को अनार्य-कर्म कहने का कोई कारण नहीं था । पर, इस गए गुजरे जमाने में कई नए टीकाकार पैदा हुए हैं, जो उन पुराने आचार्यों की मान्यताओं और भगवान् महावीर के समय से ही चली आने वाली पवित्र परम्पराओं को तिलांजलि देने की अभद्र चेष्टा कर रहे हैं। जैन-जगत् के युगद्रष्टा एवं क्रान्तिकारी आचार्य पूज्यपाद श्री जवाहरलालजी महाराज को, जिन्होंने प्राचीन परम्परा के आधार पर अपना स्पष्ट चिन्तन रखा है, ऐसे ही कुछ टीकाकार उत्सूत्रप्ररूपी तक कहने का दुस्साहस करते हैं । खेती आर्य-कर्म नहीं है, इससे बढ़कर सफेद झूठ और क्या हो सकता है ?
विक्रम की दूसरी या तीसरी शताब्दी में आचार्य उमास्वाति हुए हैं, जिन्होंने तत्त्वार्थ सूत्र पर स्वोपज्ञ भाष्य लिखा है । उन्होंने आर्य - कर्मों की व्याख्या करते हुए कहा है – यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन कृषि, वाणिज्य आदि जीवन- पोषक आजीविका करने वाले कर्मार्य हैं । ११ यह चिन्तन कहाँ से आया है ? उपर्युक्त प्रज्ञापनासूत्र के आधार पर ही यहाँ चिन्तन किया गया है ।
आचार्य अकलंक भट्ट ने (आठवीं शताब्दी) तत्त्वार्थ राजवार्तिक में अपना विशिष्ट चिन्तन जनता के समक्ष रखा। उन्होंने खेती-बाड़ी, चन्दन, वस्त्र आदि का व्यापार तथा लेखन - अध्यापन आदि उद्योगों को, सावद्य आर्य-कर्म बताया है । इसका कारण बतलाते हुए वे कहते हैं :
'षड़प्येते ऽविरति प्रवणत्वात्सावद्यकर्मार्याः । १२
'यह छह प्रकार के आर्य अविरति के कारण सावद्य आर्य-कर्मी हैं; अर्थात्व्रती श्रावक की भूमिका से पहले ये सावद्यकर्मार्य हैं' । परन्तु बाद में व्रती श्रावक होने पर जो मर्यादाबद्ध खेती आदि कर्म करता है, लिखने-पढ़ने का व्यवसाय करता है, वह अल्पारंभ की भूमिका में देखा जाता है । खेती आदि कर्मों के आर्य-कर्म होने के सम्बन्ध में इनसे अच्छे और क्या प्रमाण हो सकते हैं ? सारांश यही है कि श्रावक की भूमिका ही अल्पारंभ की भूमिका है । इसका रहस्य यही है कि श्रावक में विवेक होता है । वह
११
कर्मार्याः यजनयाजनाध्ययनाध्यापनकृषिवाणिज्ययोनिपोषणवृत्तयः ।
१२ आचार्य अकलंक ने लेखन आदि के समान कृषि को सावद्यकर्म ही कहा है, महासावद्य नहीं। कृषि को महारंभ - महापाप कहने वाले सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें ।
१३ “ अल्पसावद्यकर्मार्याश्च श्रावकाः ।”
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