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________________ २८६ अहिंसा-दर्शन जैनेतर साहित्य स्पष्ट बताते हैं कि कृषि करना वैश्यवर्ण का ही कार्य था, जो आज एकमात्र शूद्रों या अनार्यों के मत्थे मढ़ा जा रहा है । भगवान् महावीर ने भी कृषि कर्म करने वाले व्यक्तियों को वैश्य बतलाया है । भगवान् महावीर के पास आने वाले और व्रत ग्रहण करने वाले जिन प्रमुख श्रावकों का वर्णन उपासक दशांगसूत्र में आता है, उनमें कोई भी ऐसा नहीं था, जो श्रावक अवस्था में खेती-बाड़ी का धन्धा न करता हो। इससे कोई व्यक्ति स्वयं अनुमान लगा सकता है कि जैनपरम्परा में खेती के विषय में क्या निर्देश किया गया है ? वाणिज्यव्यापार का नम्बर तो तीसरा है, वैश्य का पहला कर्म खेती और दूसरा कर्म पशु-पालन गिनाया गया है । त्याग का क्रम यहाँ एक बात ध्यान में रखना चाहिए कि बारह व्रतधारी श्रावक की भूमिका तक तो खेती का कहीं भी निषेध नहीं है । इससे ऊपर की भूमिका प्रतिमाधारी श्रावक की भूमिका है । क्रमशः पहली, दूसरी, तीसरी आदि प्रतिमाओं को स्वीकार करने के बाद जब श्रावक आठवीं प्रतिमा को अंगीकार करता है, तब आरम्भ के कार्यों का परित्याग कर कृषि का त्याग करता है । इस सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर- परम्परा के सभी आचार्य एक स्वर से समर्थन करते हुए कहते हैं । अर्थात् - यहाँ आरम्भ से कृषि कर्म आदि समझना चाहिए। उसका त्याग आठवीं प्रतिमा में होता है । इस तरह प्रतिमाधारी श्रावक आठवीं प्रतिमा में स्वयं कृषि करने का त्याग करता है और नौवीं प्रतिमा में कराने का भी त्याग कर देता है । १० शास्त्रों का इतना स्पष्ट विवरण हमारे सामने मौजूद है और त्याग का क्रम भी स्पष्ट रूप से शास्त्र दिखा रहे हैं, दुर्भाग्य से फिर भी कुछ लोग भ्रम में पड़े हुए हैं । यह कितना आश्चर्यजनक एवं खेदपूर्ण है कि जो बात आगे की भूमिका में छोड़ने की है, उसे पहले की भूमिका में छोड़ देने का आग्रह किया जाता है, और जो विषय पहले की भूमिका में त्यागने योग्य है, उसका ठिकाना ही नहीं है ! धोती की जगह पगड़ी और पगड़ी की जगह धोती लपेट कर हम अपने आपको शेखचिल्ली की भाँति दुनिया की दृष्टि में हास्यास्पद बना रहे हैं । शास्त्र - प्रमाण आर्य और अनार्य कर्मों का विस्तृत विवरण प्रज्ञापना- सूत्र में भी आया है । ह आरम्भ :- कृष्यादिकर्म, तत्त्यागं करोति । १० देखिए - समन्तभद्रकृत 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' और प्रवचन - सारोद्धार की सिद्धसेनीया वृत्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001265
Book TitleAhimsa Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1976
Total Pages402
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size22 MB
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