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अहिंसा-दर्शन
कक्षा में प्रवेश करने के लिए भागता है और जिसे एम० ए० की कक्षा मिली है, वह पहली कक्षा में बैठने का प्रयत्न करता है।
___ यदि किसी बीमार को स्वस्थ मनुष्य का पौष्टिक भोजन दे दिया जाए तो वह कैसे पचा सकता है ? ऐसा करने पर तो उसकी शक्ति का पूर्वापेक्षया अधिक ह्रास ही होगा। इसी प्रकार किसी स्वस्थ आदमी को यदि बीमार का खाना दे दिया जाए तो उसे क्या लाभ होगा ? वह भूखा रह कर थोड़े ही दिनों में दुर्बल हो जाएगा। अज्ञान
इस तरह आज हमारे यहाँ सारी बातें परिवर्तित-सी दिखलाई पड़ती हैं। इसका मुख्य कारण 'अज्ञान' है । अज्ञान से ही यह नारा लगने लगा कि-'यह सब संसार है, पाप है, अज्ञान में पड़ना है !' कहा जाने लगा--- पहली कक्षा तो मूर्ख रहने की है ! यहाँ क्या ज्ञान मिलेगा ?' ऐसे नारे सुन-सुन कर सम्भ्रान्त व्यक्ति भी इस संसार (गृहस्थ जीवन) की कक्षा से खिसकने लगते हैं । वे जल्दी से जल्दी निकल भागने की कोशिश करते हैं । यदि उस प्रथम कक्षा वाले से यह कहा जाता है कि तुमने भी क्रान्ति की है, तुम्हारे भीतर भी इन्कलाब आ रहा है, तुम भी ठीक राह पर हो, तुमने भी कुछ न कुछ ज्ञान पा लिया है, खोया नहीं है । यदि इस तरह धीरे-धीरे विकास करते रहे तो एक दिन तुम अवश्य उच्चकोटि के विद्वान् बन जाओगे । इस प्रकार प्रथम कक्षा वाले को भी अपनी कक्षा में रस आता है। उसे भी अपने जीवन का कुछ आनन्द आए बिना नहीं रहता।
पर, कुछ साधकों ने भ्रान्त विचार-शृखलाओं में फंस कर और सत्यमार्ग से विचलित हो कर जोरों के साथ यह बात फैला दी है कि-पुत्र-पुत्रियों द्वारा मातापिता आदि की सेवा करना एकान्त पाप है, यह संसारी काम है। इसमें धर्म का अंश भी नहीं है। इस प्रकार की बातें कह-कह कर उन्होंने गृहस्थ का मन गृहस्थधर्म की भूमिका से दूर हटा दिया है। फलतः गृहस्थ अपने उत्तरदायित्व से दूर भाग खड़ा होता है । न तो वह गृहस्थधर्म का ही पूरी तरह पालन कर सकता है, और न साधु-जीवन के रस का ही पूरा आस्वादन कर पाता है। उसके विषय में यह उक्ति चरितार्थ होती है
"हलवा मिले न मांडे, दोई दीन से गये पांडे ।" . एक पांडेजी घर-बार छोड़कर संन्यासी बन गए थे । यह सोच कर कि घर की रूखी-सूखी रोटियों से पीछा छूट जाएगा और हलुवा-पूरी खाने को मिलेगी। पर, उन्हें वहाँ रुखी-सूखी रोटियाँ भी ठीक समय पर न मिलीं। "चौबेजी बनने चले थे छब्बेजी, रह गए दुब्बे ही।" विकृत-जीवन
आज गृहस्थ-धर्म की पगडंडियों पर चलने वालों ने अपना मार्ग अत्यन्त
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