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आर्य-कर्म और अनार्य-कर्म
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त्याग
त्याग भी दो तरह से होता है । एक त्याग हठ-पूर्वक होता है, जो किसी आवेश में आ कर किया जाता है । परन्तु उसमें त्यागी हुई वस्तु से सूक्ष्म रूप में सम्बन्ध बना रहता है । ऐसे त्याग से पतन की सम्भावना बनी रहती है । दूसरा त्याग सहजत्याग है, जो समुचित भूमिका आने पर अपने आप हो जाता है । दार्शनिक भाषा में हम इसे 'छूट जाना' कह सकते हैं, 'छोड़ना' नहीं ।
इस सम्बन्ध में आर्द्रकुमार की कथा जानने योग्य है-आर्द्रकुमार जब दीक्षित होने लगे तो आकाशवाणी हुई "अभी तुम्हारा भोगावली कर्म पूरा नहीं हुआ है । अभी भोग का समय बाकी है, अतः समय आने पर संयम लेना।" परन्तु आर्द्र कुमार ने आकाशवाणी की उपेक्षा की, और गर्वोद्धर भाव से कहा-"क्या चीज होते हैं कर्म ? मैं उन्हें नष्ट कर दूंगा, तोड़ डालूंगा।" और उन्होंने हठात् दीक्षा ले ली। तदुपरान्त वे साधना के पथ पर चल पड़े । वास्तव में वे बड़े ही तपस्वी थे । साधना की भट्टी में उन्होंने अपने शरीर को झोंक दिया और समझने लगे कि आकाशवाणी झूठी हो जाएगी। किन्तु भोग का निमित्त मिलते ही उन्हें वापस लौटना पड़ा। वे फिर उसी गृहस्थदशा के स्तर पर वापस आ गए और 'पुनर्मू षिको भव' वाली गति हुई । आर्द्रकुमार के अर्न्तजीवन से भोग-वासना की दुर्बलता दूर नहीं हुई थी । वह हठात् ग्रहण किए गए संयम के आवरण में छिप अवश्य गई थी, किन्तु समय आते ही वह पुनः प्रकट हुई और उन्हें संयम से पतित हो कर फिर पहले की स्थिति में आना पड़ा।
पहली कक्षा के विद्यार्थी को जब तीसरी कक्षा में ले लिया जाता है, तो वह उसके भार को सँभाल नहीं सकता । यही कारण है कि स्कूलों में जब कोई विद्यार्थी किसी कक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाता है, तो उसे उसी कक्षा में रखा जाता है। उसके लिए यही उपाय विकास का माध्यम है।
- इस प्रकार यदि गृहस्थी को छोड़ा जाए तो फल पकने पर; अर्थात्-परिपक्व स्थिति में ही छोड़ा जाए । ऐसा न हो कि कर्तव्य के दायित्व से घबरा कर भाग खड़े हों और ऊपर की ओर व्यर्थ ही छलाँगें मारने लगें।
साधु-जीवन निस्सन्देह ऊँचा है और उसके प्रति धर्मनिष्ठ लोगों में श्रद्धा भी है । पर, जो साधक गलत और अधूरी साधना करके ही आगे बढ़ जाते हैं, वे साधु-वेष ले कर भी फिसल जाते हैं और सहज-भाव में नहीं रहते । साधु का जीवन तो सहजभाव में ही बहना चाहिए । अतः जैन-धर्म किसी वस्तु को हठाग्रह-पूर्वक छोड़ने की अपेक्षा आत्म-भाव की उच्चता के साथ सहजरूप से छूट जाने को ही अधिक महत्त्व देता है।
दुर्भाग्य से आज का श्रावक, साधु की भूमिका की ओर दौड़ता है; और साधु, गृहस्थ की भूमिका की ओर । जिसे प्रथम कक्षा मिली है, वह एम० ए० की
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